सावरकर और विवेकानंद को भुलाने की राजनीति

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हाल ही में दो ऐसी घटनाएं घटित हुई जिससे भारत के ही नहीं विश्व स्तर के उन दो महान विचारकों को अपमानित करने की राजनीति की गई, जिन्होंने ऐसा एक जीवन दर्शन और राष्ट्रीय चिंतन प्रस्तुत किया जो वैश्विक चिंतन का आधार बन गया। स्वामी विवेकानंद तथा वीर सावरकर का व्यक्तित्व भारत राष्ट्र की सीमा से बहुत विराट है। पर, इस दोनों के नाम पर जिस प्रकार की सियासत हो रही है, वह देश की अस्मिता को ही एक चुनौती है। जैसा कि समाचार आ रहे है कि महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार बनाने के लिए वीर सावरकर को त्यागने के लिए तैयार है। कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस वीर सावरकर को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। दूसरी एक घटना दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा के साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया। वीर सावरकर ने राजनीति की राष्ट्रवादी व्याख्या की तो स्वामी विवेकानंद ने अध्यात्म में मानव सेवा को स्थापित किया। किसी धर्म विवेचक द्वारा पहली बार यह कहा गया कि नर सेवा ही नारायण सेवा है।

धार्मिक एकाधिकार की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के मध्य स्वामी विवेकानंद के विचार मानव कल्याण में सहायक हो सकते हैं, यही बात वीर सावरकर पर भी लागू होती है। वे धर्म का प्रवेश राजनीति में नहीं चाहते थे। उन्होंने राजनीति की सर्वहितकारी व्याख्या की। वे स्पष्ट कहा कहते थे कि मैं हिंदू राष्ट्र की बात करता हूं, हिंदू राज की नहीं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथी दलों से सम्बंधित छात्र संगठनों के समर्थकों ने स्वामी विवेकानंद को अपमानित किया। आश्चर्यजनक खेद यह है कि किसी भी कथित धर्मनिरपेक्ष तथा वामपंथी दल ने इस घटना की आलोचना नहीं की। इस चुप्पी से यह लगा कि इस दोनों महानायकों को भारत से निष्कासित करने की तैयारी चल रही है। बात बहुत पुरानी नहीं है, अभी दो माह भी नहीं गुजरे कि सत्ता के लोभ में पूरा जीवन दर्शन ही बदल गया। 18 सितंबर 2019 को मुम्बई में वीर सावरकर से संबंधित एक पुस्तक का लोकार्पण होना था। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि शिवसेना के पक्ष प्रमुख उद्घव ठाकरे थे।

कार्यक्रम में ठाकरे ने वीर सावरकर को भारत रत्न दिए जाने के औचित्य पर भाषण दिया और यह कहा कि यदि आजादी के पश्चात वीर सावरकर को देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाता तो विभाजन सम्भव नहीं था। उन्होंने यहां तक कह दिया कि जिन स्थितियों में सावरकर को जेल में रखा गया, यदि वे परिस्थितियां नेहरू के साथ होती तो निश्चित ही सावरकर के त्याग तथा संघर्ष को समझा जा सकता था। सात अप्रैल 1911 को उन्हें काला पानी की सजा कटाने के लिए सेलुलर जेल भेज दिया गया था। वहां उन पर जिस प्रकार के अत्याचार किए गए, वे अति अमानवीय थे। कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर वीर सावरकर पर हो रहे अत्याचारों की आलोचना की गई थी और उन्हें जेल से मुक्त करने की मांग भी की गई। जब वे सन 1937 में रत्नागिरी की स्थानबद्घता से मुक्त हुए तो नेहरू सहित अनेक कांग्रेसियों ने उन्हें अपनी पार्टी में शामिल होने की दावत भी दी थी। उस समय न तो माफीनामे का प्रश्न उठाया गया और न ही उनकी हिंदू राष्ट्रवादी चिंतन पर किसी को कोई आपत्ति थी। विरोध तब आरम्भ हुआ जब वीर सावरकर ने कांग्रेस में जाने से इंकार कर दिया।

अपने प्रारम्भिक जीवन में गांधीजी खुद वीर सावरकर को सम्मान देते थे। जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे, तब अक्टूबर 1906 की शीत में उनसे मिलने के लिए इंडिया हाउस लंदन गए थे। तब गांधी जी ने वीर सावरकर से कहा था कि आपकी देशभक्ति अति आक्रामक है। लेकिन उनके राष्ट्रनिष्ठ भावों की प्रशंसा भी की थी। वीर सावरकर के विरोधियों में वामपंथी दल भी हैं। शायद उनको इस बात का ज्ञान नहीं है कि जब लेनिन प्रवासन में फ्रांस चले गए थे और वीर सावरकर से मिलने के लिए इंडिया हाऊस एलंदन गए थे। साम्राज्यवादी तथा अधिनायक वादी व्यवस्था से रूस को मुक्त कराने के लिए क्रांतिकारी रणनीति पर विचार भी किया गया था। जब सन 1917 में रूसी क्रांति सफल हो गई तब रूसी संसद में अपने पहले भाषण में लेनिन ने दो बार वीर सावरकर का उल्लेख किया और उन्हें विश्व का महान क्रांतिकारी कहा। आज स्थिति यह है कि वैचारिक भिन्नता तथा वोट बैंक की राजनीति के विषाक्त व्यवहार के कारण वीर सावररक का नाम तक लेना उचित नहीं समझते। एक और घटना राजस्थान में घटित हुई। अशोक गहलोत की सरकार कक्षा दशम में पढ़ाए जाने वाले क्रांतिकारियों के परिचय तथा कार्यों को पाठ्यक्रम से निकालना चाहती है। पिछली भाजपा सरकार ने वीर सावरकर सहित अन्य क्रांतिकारियों के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को शिक्षा में सम्मिलित किया था।

महाराष्ट्र में सरकार गठन पर आम सहमति की कार्ययोजना में सर्वप्रथम वीर सावरकर को आस्था केंद्र से निष्कासित कर दिया गया। अनुमोदन उस शिव सेना की ओर से किया गया जो वीर सावरकर को ही अपना आदर्श मानती थी। शिवसेना के पूर्व पक्ष प्रमुख बाल ठाकरे ने 31 जनवरी 2011 को सामना में लिखे अपने लेख में कहा था कि वीर सावरकर भारत के महानतम क्रांतिकारी है और शिवसेना की उनके प्रति प्रतिबद्घता प्रकट की थी। अब बाल ठाकरे नहीं है, उसके विचारों तथा राष्ट्रवादी चिंतन को भी सत्ता प्राप्ति की चाहत में किनारे कर दिया गया है। कांग्रेस यह भूल गई कि सन 1945 के केंद्रीय धारा सभा के चुनावों में उसने वीर सावरकर से सहयोग मांगा था। वीर सावरकर तो इस सहयोग के लिए तैयार नहीं थे लेकिन गुरु गोलवरकर के कहने पर हिंदू महासभा के लगभग सभी प्रत्याशियों को बैठा दिया गया था ताकि कांग्रेस के वोट कट न जाएं।

कारण यह था कि हिंदू महासभा के अधिकांश प्रत्याशी संघ के स्वयंसेवक थे। वीर सावरकर दूरदर्शी थे। उन्होंने कहा था कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ होता है पाकिस्तान निर्माण के लिए वोट देना। यही हुआ भी। 3 जून 1947 को नेहरू ने रेडियो से भारत विभाजन की घोषणा कर दी। उस समय केवल वीर सावरकर ही थे जो विभाजन के विरोध में आंदोलन कर रहे थे, धर्म के नाम पर देश को खंड-खंड करने वाले उन्हें ही साम्प्रदायिक कह रहे थे। चाहे महाराष्ट्र का राजनीतिक घटनाक्रम हो, या फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय हो, दोनों स्थानों पर देश के उन दो व्यक्तिओं को अपमानित किया गया जो व्यक्ति की सीमा तोड़ एक महान व्यक्तित्च बन गए। वामपंथियों को स्वामी विवेकानंद ने परेशानी है लेकिन केरल तथा बंगाल के विधान सभा चुनावों स्वामी विवेकानंद के विचारों को प्रचारित कर वे वोट भी मांगते हैं। मानव मूल्यों तथा राष्ट्रीय अस्मिता को सुरक्षित रखने वाले महान चिंतन को दबाने का प्रयास हो रहा है। क्या देश की जनता राजनीति के इस स्वार्थमय व्यवहार को स्वीकार करेगी, शायद नहीं।

अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उ नके निजी विचार हैं )

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