सबसे बड़ा भक्त

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सबसे बड़ा भक्त
सबसे बड़ा भक्त

“अरे नहीं-नहीं मुनिवर, आपसे कोई भूल कैसे हो सकती है? भगवान तो आज एक चित्र बना रहे हैं। पूरा करके ही उठेंगे। कहते हैं संसार में अपने सबसे बड़े भक्त का चित्र बनाऊंगा।”

“नारायण….नारायण! प्रभु भी महान हैं। मैं तो यही पूछने आया था कि प्रभु का सबसे बड़ा भक्त कौन है? और प्रभु तो स्वयं पहले से ही अपने सबसे बड़े भक्त का चित्र बने है।” नारद मुनि तपाक से बोले।

नारद जी मन ही मन सोच रहे थे कि विष्णु भगवान उन्ही (नादर जी) का चित्र बना रहे होंगे। उनसे बड़ा भक्त भला हो ही कौन सकता हैथ। मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न होकर नारद जी चुपचार खड़े प्रतीक्षा करते रहे। बहुत देर के बाद वह चित्र पूरा हुआ जैसे ही जगदीश्वर ने सिर उठाया, नारद मुनि ने साष्टांग प्रणाम किया।

“कहों, कैसे आए वत्स?”

“प्रभु आज शंका का समाधान करने आया।”

“बोलो, तुम्हारे मन में क्या शंका उत्पन्न हो गई?”

उन्नति के पथ पर
उन्नति के पथ पर

“प्रभु, मैं भू-लोक में गया तो चर्चा चल रही थी कि आपकी सच्ची भक्ति सन्यास में है या मोह रहित कर्म में? मैंने सोचा आपसे ही मार्गदर्शन लूँ।”

“वाह! क्या अच्छा प्रश्न किया तुमने। लो देखो, मैंने अपने सबसे बड़े भक्त का चित्र बनाया है। यही तुम्हारे ज्ञान-चक्षु खोल देगा।”

नारद जी को पूर्ण विश्वास था कि चित्र उन्हीं का होगा। पर चित्र देखते ही नारद जी पर वज्रपात हो गया। देखा कि एक सफाईकर्मी का चित्र है। एक हाथ में झाडू व दूसरे हाथ में एक गन्दी-टूटी बाल्टी, जिसमें गन्दगी भरी है। अनायास उनके मुख से निकल गया, “यह क्या प्रभु? यह आपका सबसे बड़ा भक्त है? और मैं जो हर समय आपके नाक का स्मरण करता हूं, मैं कुछ नहीं? यह तो मेरी भक्ति का अपमान है।”

“नहीं वत्स, नहीं। मैं भला तुम्हारी भक्ति का अपमान कैसे कर सकात हूं। तुम तो मुझे बहुत प्रिय हो। यह मेरा प्रेम ही तो है जो मेरे द्वारपाल भी तुम्हारा रास्ता नहीं रोकते। पर यहां तो प्रश्न सबसे बड़े भक्त व भक्ति का हो रहा है।”

भू-लोक में ढूंढ़ते-ढूंढते वे एक स्थान पर पहुंचे। वहां वह व्यक्ति मिल ही गया जिसका चित्र प्रभु ने बनाया था। नारद जी ने बार-बार देख कर पक्का कर लिया कि यह व्यक्ति वही है जिसको प्रभु अपना सबसे बड़ा भक्त मानते हैं। नारद जी ने सोचा कि इनकी दिनचर्या तो देखें कि भला क्यों उसे सबसे बड़ा भक्त का दर्जा दिया गया है।

अगले दिन वह व्यक्ति प्रातः उठा और उसने प्रभु का नाम लेकर मात्र इतना कहा, “हे प्रभु! सामर्थ्य देना जिससे मैं कर्त्तव्य का निर्वाह करता रहूं।”

इतना कहकर वह अपने दैनिक कार्यों से निवृत्ति हुआ और फिर झाड़ू, बाल्टी लेकर सफाई के लिए निकल पड़ा। उसने दिन भर घरों की, नालियों की, सड़कों की सफाई की। दिन भर धूल-धक्कड़, गन्दगी से भरा रहा। एक बार भी प्रभु का नाम नहीं लिया।

शाम हो गई, नारद जी ने सोचा – प्रभु का कितना अन्याय है कि मैं तो दिन भर सन्यासी का जीवन बिताते हुए प्रभु का नाम लेता हूं और ये निपट मूर्ख अपने जीवन क्रम में इतना लिप्त है कि प्रभु का नाम लेने का ध्यान तक नहीं है। गन्दगी से भरा ये नीच, न तो मंदिर गया न ही ध्यान, साधना या समाधि लगाई और फिर भी प्रभु इसे मुझसे बड़ा भक्त मानते है।

साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)
लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण

पार्ट- 2 (अभी जारी है… आगे कल पढ़े)

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