सरकारें जब भी राहत या आर्थिक पैकेज का ऐलान करती है या किसी कल्याणकारी योजना की घोषणा करती है तो उसका एक टारगेट होता है। एक लक्षित समूह होता है, जिस तक मदद पहुंचानी होती है। मिड डे मील से लेकर मनरेगा और अंत्योदय तक हर योजना का लाभ लेने वाला एक लक्षित समूह है। पर इस सिद्धांत पर नियम और कानून तब बनते हैं, जब देश में सामान्य हालात होते हैं और सरकार के पास कुछ आंकड़े होते हैं, जिनके आधार पर उसे एक लक्षित समूह की मदद करनी होती है। पर किसी प्राकृतिक या कृत्रिम आपदा के समय में इस सिद्धांत पर कानून नहीं बनाया जा सकता है। जैसे अभी कोरोना का संकट चल रहा है। ऐसे समय में सरकार को एक लक्षित समूह की बजाय देश के सभी नागरिकों या ज्यादा से ज्यादा नागरिकों तक राहत पहुंचाने की नीति पर काम करना चाहिए।
भारत की आबादी और आर्थिक आधार पर इसे वर्गीकरण को बहुत सरल तरीके से भी देखें तो यह बहुत स्पष्ट है कि देश की 80 फीसदी आबादी को मदद की जरूरत है। मोटे तौर पर अगर आबादी को समूहों में बांटें तो तीन ऐसे समूह बनते हैं, जिनको अभी तत्काल मदद की दरकार है। इनमें सबसे पहला समूह मजदूरों का है, जिनमें खेत मजदूर भी शामिल हैं। दूसरा समूह किसानों का है और तीसरा स्वरोजगार वालों का है। इसके अलावा हाशिए के और वंचित समूहों का एक बड़ा हिस्सा है, जिनमें जंगल में रहने वाले आदिवासी, बेघर लोग, थर्ड जेंडर के लोग, बुजुर्ग आदि आते हैं। इन सबका कुल हिस्सा आबादी में 80 फीसदी या उससे ज्यादा ही बनेगा। कोरोना वायरस के संक्रमण और उसे रोकने के लिए देश भर में लागू लॉकडाउन की वजह से सबसे ज्यादा यहीं वर्ग प्रभावित हुआ है।
सो, सरकार को अपनी तमाम लक्षित योजनाओं को छोड़ कर 80 फीसदी आबादी की मदद की योजना शुरू करनी चाहिए। सरकार की ओर से कहा जा सकता है कि वह मनरेगा के तहत काम दे रही है या राशन बांट जा रहा है या किसान सम्मान निधि भेजी जा रही है। पर इस समय टुकड़ों में मदद करने की जरूरत नहीं है, बल्कि समग्रता में मदद करने की जरूरत है। देश की 80 फीसदी आबादी को एक समूह मान कर सारी मदद उन तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि सरकार इनकी मदद करने में सक्षम नहीं है। सरकार के पास अनाज भी है और उसके पास पैसा भी है, जिससे वह इन समूहों की मदद कर सकती है।
भारत सरकार के गोदामों में इस समय अनाज भरा हुआ है। सरकार के पास 74 मिलियन टन यानी कोई साढ़े सात करोड़ टन अनाज है। इसमें कोई ढाई करोड़ टन गेहूं और सवा तीन करोड़ टन चावल है। बाकी दूसरे अनाज है। सरकार के अपने नियमों के मुताबिक आपात स्थिति के लिए उसके गोदाम में ढाई करोड़ टन यानी 25 मिलियन टन अनाज का बफर स्टॉक होना चाहिए। इस लिहाज से भी सरकार के पास कोई 50 मिलियन टन यानी पांच करोड़ टन अनाज अतिरिक्त है, जिसे गोदाम में रखे रहने पर ही भारी भरकम खर्च आता है। एक अनुमान के मुताबिक एक किलो अनाज एक साल तक गोदाम में रहे तो सरकार को उस पर पांच रुपए खर्च करने होते हैं। सोचें, सरकार को कितने हजार करोड़ रुपए इस अनाज को गोदाम में रखने पर खर्च करने पड़ रहे हैं। ऊपर से अभी सरकार करीब 40 मिलियन टन रबी की फसल खरीदने वाली है। उसे रखने के लिए जगह भी कम पड़ेगी। तभी सरकार को चाहिए कि वह गोदाम से अनाज निकाले और उसे 80 फीसदी आबादी के घरों तक पहुंचाने का बंदोबस्त करे। अगर सरकार पांच व्यक्ति के परिवार को 50 किलो अनाज भी देती है तब भी बफर स्टॉक बचा रहेगा।
सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि जिन 80 फीसदी लोगों तक राहत पहुंचाने की बात हो रही है उसमें ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जिनका कामकाज बंद हुआ। दिहाड़ी मजदूरों का कामकाज बंद है तो स्वरोजगार करने वालों का धंधा भी ठप्प है। किसान कई तरह के संकट झेल रहे हैं क्योंकि उत्पादन से लेकर आपूर्ति तक की सारी चेन टूटी हुई है। इसलिए सरकार को इन समूहों के लिए नकद राशि का भी इंतजाम करना होगा।
सुशांत कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)