संघ-गुफ़ाओं के रास्ते से झांकता हिंदू – राष्ट्र

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इस ह़ते एक शाम मैंने संघ-कुनबे के एक अंत:पुरी-रहवासी के साथ बिताई। ज़ाहिर है कि वे देशभत तो हैं ही, उस से आगे बढ़ कर, घनघोर राष्ट्रवादी हैं। उससे भी आगे बढ़ कर हिंदुत्ववादी हैं। कोई छह महीने पहले हुई पिछली मुलाकात के व़त तक बीहड़ मोदी-भत भी थे। बहस होती थी तो मुझ पर पिल पड़ते थे। नरेंद्र भाई मोदी को शिव का अवतार मानते थे और मुझे इसलिए पथभ्रष्ट हिंदू कहते थे कि मैं उनके भतवत्सल की चरण वंदना को तैयार नहीं होता हूं। इस बार मेरे इन बीसियों बरस पुराने मित्र के व्यतित्व के बाकी तीन पहलू तो जस- के-तस थे, लेकिन मुझे हैरत थी कि अपने कृपानिधि को ले कर मेरी विवेचना वे ख़ामोशी से सुनते रहे। लंबा-सा ‘हूं’ बोल कर मेरी इस बात से उन्होंने सहमति भी ज़ाहिर की कि नरेंद्र भाई मोदी की लोकप्रियता में भारी गिरावट आई है। मैं उन्हें देर तक अपने बिंदुवार तर्कों में लपेटता रहा कि 2024 का लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी, नरेंद्र भाई का चेहरा सामने रख कर, किन-किन वज़हों से अब नहीं जीत पाएगी। मैं ने इन मित्रवर से कहा कि 2014 के चुनाव नतीजे नरेंद्र भाई के चेहरे की बलैयां थे। 2019 का चुनाव उन्होंने अपने इस चेहरे को नकली राष्ट्रवाद के लेप की मालिश से चमका कर हथिया लिया।

सो, आमतौर पर एक ही बार आग पर चढऩे वाली काठ की हांडी का इस्तेमाल दो बार तो हो गया, मगर अब तीसरी बार उन्हें परशुहस्त मान कर भाजपा बहुत बड़ी ग़लती करेगी। मैं ने दलील दी कि इसलिए 2024 के पहले किसी नए चेहरे को आकार देने का काम भाजपा के पितृ-संगठन संघ ने अगर अभी से करना शुरू नहीं किया तो समय की रेत उसकी मुट्ठी से अंतत: पूरी ही खिसक जाएगी। सीधे नहीं, मगर घुमा-फिरा कर मेरे इन दक्षिणवृत: मित्र ने दबी ज़ुबान से स्वीकार किया कि नरेंद्र भाई के चेहरे की चमक पहले से फीकी हुई है। साथ ही जोड़ा कि लेकिन अब भी वे ही भाजपा की नैया के सर्वश्रेष्ठ खिवैया हैं, क्योंकि उनके मुकाबले का दूसरा कोई है ही नहीं। मैं ने पूछा-अमित भाई शाह भी नहीं? जवाब मिला- अरे, अभी कहां? मैं ने सवाल किया तो कब? बोले- शायद कभी नहीं। देश में उनकी स्वीकार्यता मुश्कि़ल है। मैं ने दलील दी कि विपक्ष में चेहरा नहीं है। आप के पास भी दूसरा कोई चेहरा नहीं है। ऐसे में तो 2024 का मत-कुरुक्षेत्र विपक्ष के लिए समतल होता दीखता है। विपक्ष अगर किसी ठीक-ठाक चेहरे को आकार दे लेगा तो नरेंद्र भाई के फीके पड़ गए चेहरे को शिकस्त दे भी सकता है। दलीलों के पेचो-ख़म का यह दौर आते-आते मित्रवर रसरंजन के झरने में तीन-चार डुबकियां लगा चुके थे।

उन के होठों पर रहस्यमयी मुस्कान आई। उनकी मुख-मुद्रा पर ऐसे भाव तैरे, जैसे मुझ से कह रहे हों कि उम्रदराज़ होते जा रहे हो, मगर हो अभी बच्चे ही। उनकी सूचनाओं, उनकी जानकारियों और आगत के आसार को बहुत दूर से सूंघ लेने की उनकी महारत का मैं शुरू से कायल रहा हूं। मुझ से 2011 के अंत में ही उन्होंने कह दिया था कि 2014 में लालकृष्ण आडवाणी को संघ चाह कर भी प्रधानमंत्री नहीं बनवा पाएगा और नरेंद्र मोदी ने सत्ता छीनने की तैयारी कर ली है। वही हुआ।सो, मैं ने अपने तर्कों की पुडिय़ाएं समेटीं और आंख-कान खोल कर पूरी संजीदगी से बैठ गया। संघ-गुफ़ाओं के चोर-रास्तों की अदभुत समझ रखने वाले इन मित्रवर के दर्शनशास्त्र के पन्ने अब खुलने शुरू हुए। उन्होंने कहा कि कुछ बातें ठीक से समझ लीजिए। एक तो पांच साल के सरकारी कामकाज से चुनाव नतीजों का कोई लेना-देना आजकल रहता ही नहीं है। निर्णायक माहौल आम चुनाव के तीन महीने पहले बनता है। पांच साल की सांगठनिक सक्रियता से तैयार हुई ज़मीन पर इसके अंकुर अंतिम छह ह़तों में उगते हैं और मतदान की तारीख़ से पहले के 72 घंटे सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। फिर मित्रवर ने दूसरे पन्ने पर लिखी इबारत मुझे समझाई। बोले, चुनाव हमेशा किसी व्यति के चेहरे से नहीं जीता जाता है। जब चेहरा कमज़ोर हो तो मुद्दे को चेहरा बनाना पड़ता है।

क्या आप समझते हैं कि 2014 में नरेंद्र भाई संपूर्ण चेहरा थे? नहीं। वे आधा चेहरा थे। आधा चेहरा था कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार का मुद्दा। इस मुद्दे को चुनाव का भाजपाई- चेहरा बनाने में डेढ़ साल लगा था। मोदी के चेहरे का जन्म उस मुद्दे की परिणिति था। 2019 में भाजपा की सीटें इसलिए नहीं बढ़ीं कि नरेंद्र भाई का चेहरा कोई बहुत गुलाबी हो गया था। वे सीटें चुनाव-पूर्व की कुछ घटनाओं की देन थीं। इसे नरेंद्र भाई का सौभाग्य मान लीजिए। बहते-बहते मित्रवर ने कहा कि जब सब जानते हैं तो या संघ नहीं जानता कि 2024 में भाजपा के लिए कोई लाल कालीन नहीं बिछे हैं? जब सब देख रहे हैं तो क्या संघ नहीं देख रहा कि नरेंद्र भाई का चेहरा मुरझा रहा है? लेकिन एक बात समझ लीजिए कि अनवरत चलती रहने वाली संघ की क़दमताल और भाजपा का सांगठनिक ढांचा मोदी के कमज़ोर चेहरे के बावजूद विपक्ष को कोसों दूर रोक देने में आज भी सक्षम है। 2023 की सर्दियां आते-आते आकलन हो जाएगा कि नरेंद्र भाई के कंधों को इस बार कितने दमदार मुद्दों के सहारे की ज़रूरत है। उस हिसाब से सारी तैयारी हो जाएगी। आप निश्चिंत रहिए, आप अभी दस-बीस साल वापस नहीं आ रहे हैं। मैं ने कहा कि कोई मुद्दा ऐसा नहीं है, जो भाजपा के पक्ष में देश पर छा जाए। अब तो सारे मुद्दे ऐसे हैं, जो नरेंद्र मोदी के खि़लाफ़ मुल्क़ के आसमान पर छा रहे हैं। अर्थव्यवस्था पातालगामी है। नौकरियां हवा में उड़ गई हैं।

देश की संपत्तियां तक बिक रही हैं। महामारी में सरकार की ना-लायकी पर लोग थू-थू कर रहे हैं। और, ऐसे में आप को लग रहा है कि आप कोई ऐसा मुद्दा निर्मित कर लेंगे, जो सनसनाता हुआ पूरे भारत का बहुमत आप की झोली में डाल देगा? अगर राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर इतना उत्साहित हैं तो समझ लीजिए कि बहुत बड़ी गफ़लत में हैं। इस मुद्दे का कोई लेवाल नहीं है। अब दर्शनशास्त्र का अंतिम पन्ना खुला। मित्रवर ने अब तक लाल डोर पर चढ़ गई अपनी आंखों में से एक को हलका-सा दबा कर मुझ से पूछा-और, अगर भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कह दिया कि जनता ने हमें इस बार संसद में दो तिहाई बहुमत का आशीर्वाद दिया तो भारत को हिंदू-राष्ट्रघोषित करने की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएंगे, तो? तब से मेरे ज़ेहन में ‘तो? तो? तो?’ गूंज रहा है। बहुत दूर की कौड़ी है। भारत को बाकायदा हिंदू-राष्ट्रघोषित करना असंभव-सा है। देश ऐसा होने नहीं देगा। लेकिन मोदी हैं तो इतना तो मुमकिन है कि अगले चुनाव से पहले भाजपा अपना यह इरादा बाकायदा घोषित कर दे! दो तिहाई बहुमत कौनसा आ ही रहा है? लेकिन इससे भाजपा की चल-चलाव काया में कुछ तो प्राण पड़ ही जाएंगे। सवा सात साल में इतना तो हमने देख ही लिया कि वादे और इरादे सिफऱ् बातें हैं, बातों का क्या? अच्छे दिन नहीं आए तो या, सरकार तो आ गई? काला धन नहीं आया तो या, सरकार तो आ गई। सो, संघ- कुनबे को तो भाजपा की सरकार लानी है। कुछ भी फऱेब करना पड़े।

पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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