गंगा और यमुना के डेल्टा में बसे बिहार की जमीन कितनी उपजाऊ है कि चार दाने बोने पर भी 40 होते हैं। अधिकांश आई.ए.एस अफसर बिहार केडर के हैं। कुछ दिन पूर्व रितिक रोशन अभिनीत फिल्म ‘सुपर थर्टी’ बिहार के एक शिक्षक के जीवन से प्रेरित थी। फिल्म में गरीब दलित परिवार के बच्चों को एक शिक्षक अपने मौलिक अंदाज़ में पढ़ाता है। उसकी शिक्षा प्रणाली में ज्ञान को दैनिक जीवन की व्यवहारिकता से जोड़कर रोचक बनाया जाना प्रस्तुत किया गया।
बिहार के मनोज कुमार मध्यप्रदेश के वित्त सचिव रहे। गीतकार शैलेंद्र का जन्म अमृतसर में हुआ परंतु उनके माता-पिता सब बिहार में जन्मे थे। शैलेंद्र ने फणीश्वर नाथ रेणु की कथा से प्रेरित फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई। फिल्म में गीत था, ‘दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई , काहे को दुनिया बनाई’। इस गीत को गाड़ीवान हीरामन नौटंकी वाली हीराबाई को सुनाता है। मुखड़े व अंतरे के बीच में महुआ घटवारिन की कथा भी सुनाता है कि कैसे एक सौदागर ने उसे खरीदा परंतु उसने नाव से कूदकर मर जाना पसंद किया। वर्तमान में सौदागर के लोहपाश से कोई बच ही नहीं सकता। साहित्य प्रेरित फिल्मों में विमल राय की ‘देवदास’ शैलेंद्र की ‘तीसरी कसम’ विजय आनंद की ‘गाइड’ शिखर फिल्में मानी जाती हैं।
सत्यजीत रॉय की सारी फिल्में साहित्य प्रेरित हैं। ‘कंचनजंघा’ अपवाद हो सकती है। चिंतनीय है कि बिहार के आगामी चुनाव का मुद्दा एक कलाकार की आत्महत्या को बनाया जा रहा है। बिहार में शराबबंदी है, शराब पीना यूं भी हानिकारक है, परंतु शराब बंदी कहीं कारगर सिद्ध नहीं होती। खाकसार की नसीरुद्दीन शाह ओम पुरी और विजेंद्र घाटगे अभिनीत फिल्म ‘शायद’ में एक अवैध शराब से मृत्यु की सत्य घटना से प्रेरित प्रकरण है कि त्रुटिवश मिथाइल अल्कोहल से शराब बनाई गई। फिल्म कई लोगों के प्राण चले गए, कई अंधे हो गए। ज्ञातव्य है कि इंदौर के शायर कासिफ इंदौरी ने ग्वालियर में आयोजित मुशायरे में बड़ी प्रशंसा पाई। इंदौर लौटकर उन्होंने अपने परिवार को बताया कि आज के बाद वे शराब से तौबा कर लेंगे। दुर्भाग्यवश उसी दिन शराब, मिथाइल अल्कोहल से बनाई गई थी हमने काशिफ को खो दिया। उनका एक शेर इस तरह है, ‘मुझ पे इल्ज़ाम-ए-बलानोशी सरासर है गलत, जिस कदर आंसू पिये हैं उस से कम, पी है.. जब कभी साकी से अए ‘काशिफ़’ निगाहें मिल गईं, तोड़कर मैं ने ना पीने की कसम, पी है।
ज्ञात रहे कि ईथाइल और मिथाइल अल्कोहल सामान रंग के होते हैं और भेद करना कठिन होता है। मिथाइल अल्कोहल जान ले सकता है। पृथ्वी से हजारों मील दूर ब्रह्मांड में पृथ्वी के आकाश से 100 गुना अधिक बड़ा मिथाइल अल्कोहल का एक बादल है, जिसके फटने का कोई भय नहीं है और फट भी जाए तो वह पृथ्वी तक नहीं पहुंच सकता। मनुष्य का सबसे बड़ा दोस्त और दुश्मन खुद मनुष्य ही है। वह मिथाइल अल्कोहल की भूल कर सकता है। हम साया हमसफर हम सब साथ साथ चलते हैं। बिहार की धरती उपजाऊ है। लोग मेहनतकश हैं परंतु व्यवस्था टूटी-फूटी हुई है। व्यवस्था ही मिथाइल अल्कोहल का बादल है। ज्ञात रहे कि केवल यमुना के तट की रेत को ‘रेणु’ कहते हैं। शैलेंद्र की योजना थी कि ‘तीसरी कसम’ के बाद ‘रेणु’ की ‘मैला आंचल’ और ‘परती परीकथा’ उपन्यासों से प्रेरित फिल्में बनाएंगे। बिहार का नाम आते ही शैलेंद्र याद आते हैं। उनका लिखा अंतिम गीत है, ‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां’। क्या शैलेंद्र अपने पुनरागमन में अपना मत देने आएंगे? क्या मृत आत्माओं को मताधिकार मिल सकता है।
हमेशा संयमित और मॉडरेट बना रहना आवश्यक है: अक्षय कुमार ने 40 दिन की शूटिंग करके ‘बेल बॉटम’ नामक फिल्म पूरी कर ली है। यह शूटिंग लंदन में की गई है। एक दौर में पतलून की मोरी अर्थात निचला भाग 26 से 30 इंच तक चौड़ा बनाया जाता था। फैशन वाले इसे बेल बॉटम कहते थे। फैशन चक्र निरंतर बदलता रहता है। यह मोरी घटते-घटते 14 इंच तक सिकुड़ गई। गैर इरादतन ही सही, परंतु बेल बॉटम पहना व्यति फर्श की सफाई भी करता जाता था। एक तरह से सूखा पोंछा मार देता था। गोयाकि पतलून फर्श की सफाई करने वाली झाड़ू का काम भी कर देती थी। जब पतलून की मोरी सिकुड़कर 14 इंच हुई, तो उसे पहनने के लिए कवायद करनी पड़ती थी। उसे उतारना कठिन होता था। फिल्म ‘श्री 420’ का संवाद है कि आदमी कपड़े नहीं पहनता वरन् कपड़े मनुष्य को धारण करने लगते हैं। ‘चेस्टिटी बेल्ट’ नामक अमेरिकन फिल्म में दिखाया गया है कि लंबे चलने वाले युद्ध पर जाने से पहले राजा अपनी महारानी को लोहे का बना ‘चेस्टिटी बेल्ट’ बांधकर जाता था और चाबी अपने साथ ले जाता था।
यह बेल्ट इस तरह बनाया गया कि दैनिक कार्य किए जा सकते थे, परंतु ‘चरित्र’ बचा रहता था। चतुर महारानी दूसरी चाबी बनवा लेती थी। यह फिल्म कतई अश्लील नहीं थी, वरन शरारती थी। एक दौर में इंग्लैंड की लड़कियों की कमर में कोरसेट नामक चौड़ा सा बेल्ट खूब कसकर बांधा जाता था कि कन्या की कमर चौड़ी न हो जाए। इस तरह का दृश्य फिल्म ‘टाइटैनिक’ में प्रस्तुत किया गया था। चीन में कन्या को लकड़ी के बने टाइट सैंडिल पहनाए जाते थे, ताकि उसके पैर की लंबाई बढ़ न जाए। यह कैसी अजब कहावत बनी कि ‘सिर बड़ा सरदार का, पैर बड़े गंवार के’। भारत में कन्याओं को दूध-घी खाना मना किया जाता था कि कहीं विवाह योग्य न दिखने लगें। साहित्य में महिलाओं पर सदियों से चले आ रहे अत्याचार के विवरण मौजूद हैं और मायथोलॉजी तो इससे अटी पड़ी है। ‘सिमॉन द व्वू’ में लिखा है कि मध्यम आय वर्ग की महिला बुर्जुआ प्रसाधन को उतारकर अपने स्वाभाविक रूप में सामने आ जाए तो पुरुष भयभीत हो जाता है। आज जब हम बेल बॉटम पहने पात्रों की फिल्में देखते हैं तो अजीब सा लगता है।
राजनीति में राइटिस्ट और लेफ्टिस्ट दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं, परंतु वामपंथ की ओर झुका हुआ मध्यम मार्ग श्रेष्ठ है। यह चिंतनीय है कि वर्तमान दौर में अधिकांश देशों में राइटिस्ट लोगों की हुकूमत चल रही है। या वामपंथ विचारधारा समाप्त हो गई? दरअसल विचार चक्र सदैव घूमता रहता है। वामपंथ की वापसी हो सकती है। यह भी गौरतलब है कि वामपंथ मानने वाले लोगों ने अधिकांश साहित्य रचा है। राइटिस्ट मौलिक चिंतन के खिलाफ हैं। उन्होंने कभी महान सृजनधर्मी लोगों को पनपने नहीं दिया। हर देश का अपराध और दंड विधान अलग-अलग होता है। एक दौर में इटली में गर्भवती स्त्री को जेल नहीं भेजा जाता था।सोफिया लारा अभिनीत फिल्म में नायिका से एक मामूली अपराध हो गया। मान लीजिए कि जुर्म इतना मामूली था कि उसने अपनी कार अधिक गति से चलाई।
गिरफ्तार करते समय मेडिकल जांच में सोफिया गर्भवती पाई जाती है। उसे शिशु के जन्म के 40 दिन बाद ही गिरफ्तार किया जा सकता है। वह निरंतर बच्चों को जन्म देने के कारण सजा से बची रहती है। अपने शिशु के बाद वह गर्भवती नहीं बन पाती तो अपने पति की पिटाई करती है कि इस निकमे आदमी से इतना भी नहीं हुआ। बहरहाल यह हास्य रस की फिल्म थी। सोफिया लारा का जन्म ही घटनाओं से भरा रहा है। अत्यंत गरीब घर में जन्मी सोफिया अपने शरीर सौष्ठव के कारण मॉडलिंग से फिल्म सितारा बनने तक पहुंची। उसका विवाह कार्लो पोंटी नामक फिल्म निर्माता के साथ हुआ था। एक छोटे से मकान में जन्मी सोफिया ने 27 बेडरूम वाली कोठी बनवाई थी। इटली में पर्यटक उस कोठी को देखने जाते थे। बहरहाल अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म बेल बॉटम सिनेमाघरों में दिखाई जाएगी। सब कुछ महामारी पर निर्भर करता है।
जयप्रकाश चौखसे
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)