नौवीं लोकसभा का कार्यकाल उत्तेजना, रोमांच और भविष्य के गर्भ में पल रही घटनाओं से शुरू हुआ था। जनता दल के चिह्न पर मैं भी हापुड़ से लोकप्रिय दलित नेता वीपी मौर्य को पराजित कर संसद में पहुंचा था। वह एक ऐसा काल था जिसमें प्रधानमंत्री चुनने का तरीका विस्मयकारी अधिक था। चंद्रशेखर समेत कई महत्वपूर्ण नेता वीपी सिंह की प्रधानमंत्री पद पर उम्मीदवारी के विरुद्ध थे। सेंट्रल हॉल खचाखच भरा था। मधु दंडवते चुनाव पर्यवेक्षक की भूमिका में थे। वीपी सिंह ने चौधरी देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा। चौधरी देवीलाल सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री चुन लिए गए। चौधरी देवीलाल ने सभी सांसदों का धन्यवाद किया, लेकिन स्वयं को बड़ी भूमिका के लिए अनुपयुक्त बताकर वीपी सिंह को अपने स्थान पर मनोनीत कर दिया। चंद्रशेखर ने तुरंत इस बात का विरोध किया, लेकिन जनमत एवं बहुमत उस समय वीपी सिंह के साथ था। यह प्रक्रिया राजनीति के उच्च आदर्शों एवं स्थापित मूल्यों के विरुद्ध थी। इसमें चालाकी अधिक थी और पारदर्शिता कम। दरअसल, प्रातः ही उड़ीसा भवन के कमरा नंबर 301 में बीजू पटनायक इस पटकथा को लिख चुके थे। इस स्क्रिप्ट पर वीपी सिंह, देवीलाल और अरुण नेहरू की सहमति हो चुकी थी।
भारतीय लोकतंत्र में यह लोकसभा इस बात के लिए भी याद की जाएगी कि कभी एक-दूसरे सहयोगी एवं विश्वासी रहे (वीपी सिंह-राजीव गांधी) नेता पक्ष और प्रतिपक्ष के महत्वपूर्ण पदों पर थे। गलती जो दोहराई गई इस सदन में अगर राजीव गांधी थे तो उनकी माताश्री के हत्यारे बेअंत की विधवा श्रीमती संतवंत कौर भी विराजमान थी जो अतिवादी सिख संगठन सिख फेडरेशन के टिकट पर विजयी होकर आई थीं। सदन में समाजवादी पृष्टभूमि और उसके बाद जनसंघ के विचारों को मानने वालों की खासी तादाद थी। उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र् से जनता दल के टिकट पर विजयी रहे अधिकांश सांसद लोकदल और समाजवादी सोच रखने वाले थे। इसी प्रकार 1977 के बाद जनसंघ के विचार वालों का अच्छा खासा जमघट था। जिस प्रकार 1977 में जनता पार्टी के निर्माण के साथ ही विघटन के बीज बोए गए उसी परंपरा का निर्वाह जनता दल के नेता भी कर रहे थे। चाहे मंत्रिमंडल का गठन हो, महत्वपूर्ण विभागों का वितरण हो या फिर राज्यपालों की नियुक्ति- सब पर उनका रवैया वैसा ही इकतरफा था। योजना आयोग के गठन से लेकर तमाम महत्वपूर्ण नियुक्तियां ऐसे की जा रही थीं मानो एक दल की बहुमत वाली सरकार हो।
समाजवादी नेता मधु लिमये ने उस समय सुझाव दिया था कि सरकार की स्थिरता के लिए सभी गैर कांग्रेसी दलों की संयुक्त सरकार बने। आडवाणी स्वयं स्वीकार कर चुके हैं कि प्रारंभ में बीजेपी का एक तबका सत्ता में साझेदारी का पक्षधर था। कांग्रेस विरोधी जन आंदोलन में बीजेपी की व्यापक हिस्सेदारी बनी रहती थी और जसवंत सिंह का आवास ऐसी गतिविधियों का केंद्र। लेकिन वामपंथी न तो स्वयं सरकार में हिस्सेदारी करना चाहते थे और न ही वे बीजेपी को मंत्रिमंडल में भागीदारी करने देने के पक्ष में थे। बीजेपी को संतुष्ट करने के लिए यज्ञदत्त शर्मा को उड़ीसा का राज्यपाल, अरुण जेटली को अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल और जसवंत सिंह को प्राक्कलन समिति का अध्यक्ष बना दिया गया और उसे संतुष्ट मान लिया गया था जबकि उस सदन में 86 सांसद बीजेपी के थे।
वी.पी. सिंह को निरंतर सुझाव दिए गए कि वे स्थायी समन्वय समिति बनाकर नीतिगत फैसले लिया करें। वे इसके बजाय अनौपचारिक रात्रि बैठकों और वामपंथी दलों एवं बीजेपी नेताओं से समय-समय पर फोन द्वारा वार्ता का सहारा लेते थे। प्रारंभिक दिनों में बीजेपी का रुख काफी सकारात्मक रहा था। जनता पार्टी के नेतृत्व ने 1978 में चौ चरण सिंह ने राजनारायण को मंत्रिपरिषद से बाहर करने की जो गलती की थी, उसी की पुनरावृत्ति देवीलाल को बर्खास्त कर की जा चुकी थी। इस बार जनता दल में विभाजन नहीं हो रहा था बल्कि वह कई भागों में बंटकर अपनी पहचान एवं अस्तित्व को समाप्त करने की ओर अग्रसर हो चुका था। हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, गुजरात और बिहार के क्षत्रप अपने-अपने जातीय आधार को सुरक्षित रखने के कुप्रयासों में लग गये। वर्तमान राजनैतिक मानचित्र उसकी असली तस्वीर बयां करता है।
केसी त्यागी
( लेखक पूर्व सांसद हैं, ये उनके निजी विचार हैं। )