विवाद का नया रास्ता

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ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने रविवार को लखनऊ में हुई बैठक के बाद स्पष्ट कर दिया कि अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल होगी। बोर्ड के साथ जमीयत उलेमा-ए-हिन्द भी है। हालांकि बाबरी मस्जिद के अहम पक्षकार इकबाल अंसारी ने अपने पुराने खपर कायम रहते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा न खटखटाने की बात कही है। बोर्ड को लगता है कि फैसले में कई तथ्य नजर अंदाज हुए है। वैसे कोर्ट के फैसले का हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों ने खुले दिल से स्वागत किया है। इससे यह उम्मीद बंधी कि अब दशकों के विवाद खात्मे के साथ ही देश नए सपनों की तामीर के लिए भविष्य की तरफ देख रहा है। लेकिन हल फिलहाल की कोशिश निराश करती है। हालांकि अंतिम फैसले के बाद पुनर्विचार याचिकाएं प्राय: पोषणीय नहीं होती और यदि होती भी है तो ऐसा बहुत काम होता है कि पुराने फैसले के ठीक उलट फैसला आये। शायद इसीलिए मौलाना अरशद मदनी भी स्वीकार करते हैं कि सौ फीसदी उनकी पुनर्विचार याचिका निरस्त होगी।

लेकिन अहम यह है कि हमारा हक है ये। फैसले के बाद संयोजक अवं सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने असंतोष जताया था। इसके बाद असुदुद्दीन ओवैसी ने मामले को यह कहकर गरमा दिया कि मुस्लिमों को मस्जिद के लिए पांच एकड़ जमीन मुफ्त में स्वीकार नहीं है। अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद के अंतिम न्यायिक निपटारे के बाद भी चंद मुस्लिम संगठनों-नेताओं की कोशिश यही है कि मामले को जिन्दा रखा जाए, ताकि जो गंगा-जमुनी तहजीब है उसको दागदार किया जा सके । यह बात और ऐसी कोशिशें अब पहली जैसी अनुकूलता नहीं पाने वाली है। बावजूद इसके मुस्लिम जमात में फैसले को लेकर बदगुमानी पैदा करने की कोशिश जरूर दिखाई देती है। दिलचस्प यह है कि उन्ही बिंदुओं को रेखांकित किया जाता है जो उन्हें सूट करता है।

मसलन 1949 में मस्जिद के मध्य हिस्से में मूर्तियों का रखा जाना और 1992 दिसंबर में मस्जिद गिराया जाना कोर्ट की नजर में अवैधानिक है लेकिन फैसले में उस विवादित जमीन को रामलला विराजमान को दे दी गयी, यह समझ से परे है। लेकिन कोर्ट में मुस्लिम पक्षकारों का यह दवा झूठा साबित हुआ कि मस्जिद खली जमीन पर तामीर हुई थी। इसलिए पूरा तत्व विभाग की तरफ से खोदाई में जमीन के नीचे हिन्दू धर्मावलम्बियों से जुड़ा ढांचा मिला जिसमें मूर्तियां थी। इसके अलावा मुस्लिम पक्षकार यह भी साबित नहीं कर पाए कि 1857 से पहले उस स्थान पर नमाज होती थी। जबकि हिन्दू पक्षकारों ने उससे पहले से अपनी पूजा अर्चना का सुबूत प्रमाणित किया। तो कुल मिलकर यह साफ हो जाता है कि लोग सिर्फ अपनी राजनीती चमकना चाहते हैं। यह तय है ऐसी कोशिशों को समाज से ही समर्थन प्राप्त नहीं है। पर बदगुमानी की कोशिश का क्या हर्ज। यही सोचकर ऐसी तमाम कोशिशें हो रही हैं। बहरहाल इससे यह भी पता चल गया है कि वो कौन सी ताकतें रहीं जिसने बरसों-बरस अयोध्या विवाद के समाधान में रोड़े अटकाए।

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