अमेरिका एवं यूरोप की सम्पन्नता और सुविधाएं देखकर भारत का अभिजात्य वर्ग बड़ा प्रभावित होता रहा है जिसका परिणाम ये हुआ कि निजीकरण, उदारीकरण कि ओर हम चल पड़े। ये तथाकथित बुद्धिजीवी एवं व्यापारी सोचे कि उनकी नक़ल करके हम भी वैसे हो जायेंगे जबकि परिस्थितियों कि तुलना नहीं की। यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रान्ति सत्रहवीं-अठारवी शताब्दी में हो चुकी है और आज भी उस दौर की तुलना में कुछ मायनों में हम उनसे पीछे हैं। बिहार में इस समय विधानसभा चुनाव हो रहा है। तेजस्वी यादव ने दस लाख सरकारी नौकरी देने का वायदा करके राज्य को कल्याणकारी बनाने का प्रयास किया है। 2014 में भाजपा की सरकार केंद्र में आई और अंधाधुंध अमेरिका और यूरोप के विकास मॉडल पर चल पड़े। वहां पर अभी तक चीजें निजी क्षेत्र में हैं और राज्य धीरे-धीरे अपना कल्याणकारी स्वरूप खो बैठे हैं। 60-70 के दशक में रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि देने का कार्य सरकार का होना चाहिए ऐसी मांगें हुआ करती थीं। 90 के बाद बदलाव आना शुरू हुआ और मोदी राज में तो लगा ही नहीं कि राज्य को कल्याणकारी होना चाहिए। स्वास्थ्य के मामले में भी कुछ ऐसा नजरिया रहा रोजगार के मामले में सरकार ने बिल्कुल ही पल्ला झाड़ लिया और इसे अनावश्यक सरकार के ऊपर बोझ मान लिया। मीडिया, बुद्धिजीवी और सरकार के अनोखे गठजोड़ से माहौल बनाया गया कि हजारों एवं लाखों कर्मचारियों-अधिकारियों पर सरकार खर्चा करती है।
क्यों नहीं इसे खत्म कर दिया जाये। तमाम तरीके निकाले गए जैसे निजीकरण, विनिवेश, आउट्सोर्सिंग, ठेकेदारी आदि और दूसरी तरफ वीआरएस एवं सीआरएस की तमाम योजनायें लायी गयीं। कर्मचारी-अधिकारी सेवानिवृत होते रहे और दूसरी तरफ नई भारतीयों के रास्ते बंद कर दिए गए। इस तरह से सरकार काफी हद तक गैर कल्याणकारी होती गयी जैसे यूरोप और अमेरिका में है। देखने कि बात है कि क्या दोनों समाजों की परिस्थितियाँ समान हैं या भिन्न? बिहार के चुनाव में दस लाख नौकरी देना मुद्दा बना जो शायद कभी-कभार होता है, इसका परिणाम केवल बिहार में ही नहीं दिखेगा बल्कि पूरे देश में दिखेगा। अगर, बिहार के लोगों ने इस मुद्दे पर मतदान किया तब ऐसा देखने को मिल सकता है। यूरोप और अमेरिका के देश स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार आदि से पल्ला झाड़ सकते हैं चूंकि वहां उतनी असमानता नहीं है। हमारे यहाँ जाति व्यावस्था है और अभी भी बड़े आबादी के हिस्से को आज़ादी नहीं है कि वह किसी भी व्यापार और पेशे को जब चाहे अपना ले या छोड़ दे। दूसरी बात यह है कि उन देशों में धन एक ही पीढ़ी के लिए कमाया जाता है और अपवाद को छोड़कर के दुनिया से विदा होने के पहले लोग अपनी धन सम्पत्ति को खत्म कर चुके होते हैं क्या सामजिक कार्य में लगा देते हैं या दान दे देते हैं। इसके विपरीत हमारे यहाँ सात पीढ़ी के लिए धन कमाया जाता है। अत: समाज के बड़े हिस्से तक नहीं पहुच पाता है।
हमारे यहाँ व्यक्ति स्वर्ग में जगह बनाने के लिए धन व्यय करेगा या आने वाली पीढ़ी के लिए इसलिए जितना ज्यादा हो कभी पूरा नहीं हो पाता। कभी दूसरों को देने या छोडऩे के लिए नहीं हो पाता। जातीय एवं सामाजिक व्यवस्था ने उदारता के लिए बहुत कम जगह छोड़ी है। एक जमीदार के पास सौ एकड़ जमीन अगर है तो न स्वयं मेहनत करेगा और ना ही भूमिहीन दलित या गरीब को उचित मजदूरी/ अधिया/ बटाईदारी देते हैं। जातीय भावना धन और संसाधन के समान वितरण में हजारों वर्ष से पक्षपाती रही है। चाहे स्वयं की हानि क्यों न हो अगर उससे कथित रूप से उनसे निम्न जाति का हो तो उसे खुशहाल नहीं देखना चाहेंगे। कोरोना महामारी से सबक लेने की जरूरत है कि निजी अस्पतालों ने किस तरह से मरीजों को लूटा है और लोगों को महसूस करा दिया कि सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था के बगैर इलाज संभव ही नहीं है। जो रेलवे प्लेटफार्म टिकट दो रूपये का था उसको पचास रूपये का कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमत कौडिय़ों के भाव है लेकिन यहाँ कीमत आसमान छू रही है। किसानों को अपने उत्पाद का कितना कम मूल्य मिल रहा है, शिक्षा कितनी महंगी हो गयी है। जब पूरे देश में अर्थव्यवस्था चौपट हो तो बड़े पूंजीपतियों के लाभ में बड़ा उछाल आया। जिन सेवाओं से सरकार ने पल्ला झाड़ा और निजी क्षेत्र को दिया महंगा होता गया। भारत को आज़ाद हुए सात दशक ही हुए इसलिए अभी दशकों तक राज्य को जीवन के तमाम उपयोगी या आवश्यकताओं को पूरा करने में हस्तक्षेप करना पड़ेगा। आने वाले चुनाव में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य मुद्दा बनें ऐसी संभावनाएं दिखती हैं। अगर बिहार के चुनाव पर नजऱ डालें तो दस नवम्बर को और स्पष्टता आ जानी चाहिए।
डा.उदित राज
(लेखक दलित परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, पूर्व लोकसभा सदस्य और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं, ये उनके निजी विचार हैं)