राजीव की रूह और कांग्रेस का प्रारब्ध

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जो नहीं मानते, वे न मानें, मगर मैं मानता हूं कि जन्म-जन्मांतर का एक चक्र होता है और इसलिए मुझे लगता है कि, मालूम नहीं, यह कौन-सा योग है कि स्वयं को राजनीतिक वानप्रस्थ के लिए समर्पित कर देने के बाद भी परिस्थितियां सोनिया गांधी को महासमर में लौटा लाईं? 19 बरस कांग्रेस की रखवाली करने के बाद जब 19 महीने पहले सोनिया ने सब-कुछ पूरी तरह राहुल गांधी को सौंपा तो किसे लगता था कि उन्हें एक बार फिर लौट कर आना होगा? सोनिया तो अपने को साढ़े छह साल पहले ही रोज़मर्रा के कांग्रेसी-कामकाज से अलग कर चुकी थीं। राहुल के पार्टी-उपाध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने लोगों से मिलना-जुलना तक बहुत कम कर दिया था। ऐसे में उनकी वापसी कितनी ही अंतरिम हो, उसके पीछे कोई तो प्रारब्ध ज़रूर काम कर रहा है।

सोनिया का पुनरागमन तब हुआ है, जब, राजीव गांधी अगर होते, तो आते मंगलवार को 75 साल के हो जाते। कुछ देसी-परदेसी ताक़तों की साज़िश के चलते अगर उनकी असमय अलविदाई न होती तो बहुत कुछ हुआ होता और बहुत कुछ न हुआ होता। वे होते तो 27 साल पहले अयोध्या में घटा हादसा न हुआ होता। ऐसे में भारतीय समाज में वे विष-बीज भी न पड़ते, जिनके उन्मादी-रथ की सवारी ने अंततः एक ऐसी व्यवस्था को हम पर थोप दिया, जिसमें करुणा की जगह क्रोध और स्नेह की जगह भय का बोलबाला है। राजीव अगर आज भी होते तो भारत के बुनियादी राजनीतिक-सामाजिक मूल्यों के क्षरण का यह दौर इस तरह अर्रा कर नहीं आता।

आज की कांग्रेस राजीव के ज़माने के उनसे भी ज़्यादा बज़ुर्गों और उस वक़्त के उनके हमजोलियों के बूते ही चल रही है। मोतीलाल वोरा 90 के हैं, कर्ण सिंह 88 के। मनमोहन सिंह और मोहसिना किदवई 87 के हैं। तरुण गोगोई 85 के। शिवराज पाटिल 84 के हैं और वीरप्पा मोइली 79 के। ए. के. एंटनी और ऑस्कर फर्नांडिस 78 के हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे और सैम पित्रोदा 77 के हैं। ओमन चांडी और अंबिका सोनी 76 के हैं। मीरा कुमार और पी. चिदंबरम 74 के। दिग्विजय सिंह और कमलनाथ 72 के हैं। हरीश रावत 71 के। अहमद पटेल और गुलाम नबी आज़ाद 70 के हैं। इनमें से कौन ऐसा है, जिसका काम-नाम धुंधला पड़ गया हो? सो, राजीव होते तो एक सकारात्मक नई पौध भी लहलहाती और पुराने पेड़ों की जड़ों का संगीत भी गूंजता रहता।

राजीव गांधी से मैं पहली बार तब मिला था, जब वे जींस और टी-शर्ट पहन कर, एशियाई खेलों के दिल्ली में आयोजन की ज़िम्मेदारी संभाल रहे थे। वे कांग्रेस के महासचिव बन गए थे। मुझे नवभारत टाइम्स में आए जुम्मा-जुम्मा ढाई-तीन साल हुए थे। हमारे समाचार-संपादकों में एक थे दीवान द्वारका खोसला। वे दिल्ली में कांग्रेस की राजनीति में भी सक्रिय थे। उन्होंने पहली बार मुझे राजीव जी से मिलवाया। छोटी उम्र का अज्ञान बहुत सारे संकोच तो आपके आसपास फटकने भी नहीं देता है। सो, बिना गुणा-भाग के आपकी बेलौसी ऐसे-ऐसों से आपका तारतम्य बैठा देती है कि बाद में आप भी देखते रह जाएं। वही हुआ। राजीव जी प्रधानमंत्री बन गए तो मुझे अमेठी में उनकी जिप्सी में पीछे बैठ कर सफ़र करने से लेकर उनके विमान में देश-विदेश जाने तक के मौक़े मिलते रहे। वे भले थे, बहुत भले। सो, उनके आसपास भलों की टोली भी थी और उनके भलेपन का फ़ायदा उठा कर घुस गए सत्ताखोरों की भी।

राजीव गांधी जिस माहौल में प्रधानमंत्री बने थे, उसने कई ऐसे लोगों पर उनकी निर्भरता बढ़ा दी थी, जो उनकी निजी-मंडली में तो पुराने थे, मगर थे गै़र-सियासी। अमिताभ बच्चन राजीव से चार साल बड़े थे। अरुण नेहरू और अरुण सिंह दोनों उनसे एक-एक साल बड़े थे। कप्तान सतीश शर्मा एक साल छोटे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव से पूरे 14 साल बड़े थे। आनंद शर्मा तो तब महज़ 32 साल के थे। विश्वनाथ, अमिताभ और अरुण नेहरू ने राजीव के साथ क्या-क्या नहीं किया? अरुण सिंह भी बिनसर के जंगलों में जा कर कोईं यूं ही नहीं बैठ गए थे। मैं उस ज़माने में उनसे मिलने उनकी वन-कुटी में पहुंचा। वह क़िस्सा फिर कभी।

राजीव गांधी प्रधानमंत्री भी थे और कांग्रेस-अध्यक्ष भी। बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने अपने तीन संसदीय सचिव बनाए थे–ऑस्कर फर्नांडिस, अरुण सिंह और अहमद पटेल। कांग्रेस-अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने पार्टी के तीन संयुक्त सचिवों को अपने से संबद्ध किया था–सरफ़राज़ अहमद, फगुनी राम और जनार्दन द्विवेदी। जब भी राजीव जी दिल्ली में होते, जनता दरबार लगाते थे। छोटे-बड़े सबसे मिलते थे। मैं उनकी जन-चौपाल की समाचार-कथा लिखने के लिए उनके साथ-साथ घूमता और सुनता कि कौन उनसे क्या कह रहा है और वे कैसे लोगों की समस्याओं का समाधान करने में लगे हैं। सरकार और संगठन में राजीव गांधी से संबद्ध तब की त्रिमूर्तियों के बारे में एक बात मैं ज़रूर कहूंगा कि निर्देशों पर आगे की कार्यवाही सुनिश्चित करने की जैसी ईमानदार नीयत उस दौर के लोगों में थी, अगर आज सोनिया-राहुल-प्रियंका की परिपालन-टोली में उसका सौ वां हिस्सा भी निःस्वार्थ-भाव से जनम ले ले तो कांग्रेस की नैया तो वैसे ही पार लग जाए।

वह वक़्त भी मैं ने नज़दीक से देखा, जब नौ वीं लोकसभा में राजीव गांधी एक बरस विपक्ष के नेता रहे। 1989 में लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़े राजनीतिक दल के तौर पर चुन कर आई थी। मगर राजीव गांधी ने सरकार बनाने का दावा पेश करने से इनकार कर दिया और विपक्ष में बैठना तय किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में जनता पार्टी की लुंज-पुंज सरकार बनी। चौधरी देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। वे उप-प्रधानमंत्री बन कर दिल्ली आ गए। मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने बेटे ओमप्रकाश चौटाला को सौंप आए। ओमप्रकाश विधानसभा के सदस्य नहीं थे। 1990 के फरवरी का अंतिम सप्ताह था। चौटाला ने मेहम से विधानसभा का उपचुनाव लड़ा। लट्ठ के ज़ोर पर चुनाव जीतने की चोट्टई में खून-खराबा हुआ। दस लोग मारे गए। दर्जनों ज़ख़्मी हो गए। एक सुबह राजीव गांधी खुद अपनी जिप्सी चलाते हुए मेहम के लिए निकले तो दिल्ली से लेकर मेहम तक के तक़रीबन सौ किलोमीटर के रास्ते में सड़क के दोनों तरफ़ लोगों की कतार लगी हुई थी। विपक्ष में हर तरह की मुसीबतों के बावजूद राजीव का वह जज़्बा जिन्होंने देखा है, वे आज के हालात देख कर आंसू न बहाएं तो क्या करें?

राहुल ने नरेंद्र भाई मोदी को डेढ़-दो साल जैसी सीना-तान चुनौती दी, वह भीतर के राजीव-तत्व की मिसाल थी। मगर, दूसरों की जवाबदेही तय कराने के लिए खुद कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ कर उन्होंने करोड़ों कांग्रेसजन से अन्याय किया। प्रधानमंत्री बनने के ढाई-तीन बरस बीतते-बीतते राजीव गांधी को भी लगने लगा था कि वे सियासत के चक्रव्यूह में किस तरह एकदम नितांत अकेले पड़ गए हैं! कैसे उनके अपने ही, उनकी सुनना तो छोड़िए, बर्छियां लिए घूम रहे हैं। 1989 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें भी कई बार लगता रहा होगा कि ‘हत्यारे इसी कमरे में बैठे हैं’। विपक्ष में थे तो क्या हुआ, वे डटे रहे। मेहम से लेकर खाड़ी-युद्ध तक में अपनी भूमिका निभाते रहे। सोनिया को यही अदृष्ट कर्म-भाव अंतराल भरने वापस लाया है और यही भवितव्य आने वाले दिनों में राहुल-प्रियंका के कर्तव्यबोध की इबारत लिखेगा। राजीव की रूह कांग्रेस को ऐसे ही बेरूह थोड़े ही हो जाने देगी।

पंकज शर्मा
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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