राजनीति में घनघोर कंफ्यूजन का दौर

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प्रधानमंत्री समेत जिन महानुभावों ने करकरे जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसरों की कुर्बानी को याद किया था, आज उन्ही की पार्टी की एक साध्वी के जरिए यह कहलवाना कि करकरे उसके श्राप और अपने कर्मों से मरे हैं, निहायत ही निंदनीय है। लेकिन क्या यह सब कुछ एक सोची समझी योजना केतह हो रहा है।

पिछले साल बीजेपी सरकार 26/11 के दस साल पूरे होने पर वीरों की शहादत को याद क र रही थी। उस समय प्रधानमंत्री समेत जिन महानुभावों ने क रक रे जैसे क र्तव्यनिष्ठ अफसरों की कुर्बानी को याद कि या था, आज उन्हीं की पार्टी की एक साध्वी के जरिए यह कहलवाना कि करकरे उसके श्राप और अपने कर्मों से मरे हैं, निहायत ही निंदनीय है। लेकि न ह्वया यह सब कुछ एक सोची-समझी योजना के तहत हो रहा है। आपकी पूरी लड़ाई किस विषय पर केंद्रित है। किसी खांटी भाजपाई से पूछियेए तो बोलेगा, धर्मयुद्ध! कांग्रेस ने इस समय न्याय को हॉट केक मान लिया है। सपा-बसपा वाले बोलेंगे, सार्वभौमिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। देवेगौड़ा का जनता दल सेक्युलर हो, या लालू प्रसाद की राजद, लक्ष्य पारिवारिक वर्चस्व को बनाए रखना है। शिवसेना राममंदिर बनवा रही थी, अपने कूजे में सरक गई। मां-माटी-मानुष की लड़ाई लडऩे वाली टीएमसी का मौजूदा मकसद पुरानी लोक सभा की 36 सीटें बचाते हुए शाह-मोदी जोड़ी पर हल्ला बोलना है।

द्रविड राजनीति करने वाली पार्टियां एआईएडीएमके और डीएमके ने लोक सभा में अस्तित्व बचाने के वास्ते अपने गोलपोस्ट में कि तना बदलाव कि या है। एनडीए खेमे में जो 41 पार्टियां रही हैं। क्या उनके बीच कोई कॉमन अजेंडा है। मोर जैसे अपने पांव नहीं देखता, पीएम मोदी अपने भानुमति के कुनबे को महामिलावट वाला गठबंधन नहीं कहते हैं। उन्हें यूपीए खेमे की 27 पार्टियों के गठबंधन को महामिलावट बोलना है। नित नए शब्द। चुनाव तक इतने हो जाएंगे, कि एक नए थिसारस का निर्माण हो जाए। एक अरब 35 क रोड़ की आबादी को क्रास कर चुके दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र में ऐसा चुनावी घमासान, किंकर्तव्यविमूढ़ता और कंफ्यूजन शायद ही कभी देखने को मिला है। सूचना प्रसारण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2016 में 857 के आसपास टीवी चैनलों की संगया थी। अब यह हजार पार कर चुकी है। मोबाइल टीवी पूरे देश में कि तने हैं, सरकार ने अब तक कोई आधिकारिक आंकड़ा जारी नहीं किया है। भारत में 27 क रोड़ से अधिक सोशल मीडिया यूजर्स हैं। इनमें हर रोज लाखों झूठी खबरें इंस्टाग्राम, ट्विटर, फेसबुक और छोटे-छोटे खोखेनुमा कमरों में चल रहे तथा कथित टीवी चैनलों के माध्यम से परोसी जा रही हैं।

इन्हें फिल्टर करना, और सही साबित करना भी एक चुनौती बन चुकी है। लगभग-लगभग हर टीवी चैनलों ने सच्ची खबर-झूठी खबर का स्लॉट बना रखा है। देश में जितनी बड़ी पार्टियां हैं उनका मीडिया सेल जनमत को अपनी तरफ मोडऩे के वास्ते हर तरह के हथकंडे अपना रहा है। सूचना का महाकाय दानव देखते-देखते इतना विकराल हो जाएगा, किसी ने कल्पना नहीं की थी। इसे कैन रोके । क्या कि सी सरकार के वश में है। अब तो नये निजाम के बाद ही यह बीच बहस का विषय हो सकता है। मुझे तो यही लगता है सूचना के इस अनियंत्रित महादानव को जानबूझ कर खड़ा कि या गया, ताकि हंगामा, को लाहल के साथ कन्फ्यूजन की स्थिति बनी रहे। बीजेपी लोगों को कन्फ्यूज करते-करते ख़ुद इसका शिकार हो गई। बालाकोट सर्जिक लस्ट्राइक का गुबारा इतना फुलाया कि वोटरों के एक बड़े हिस्से ने मान लिया था कि पांच सौ ना सही, तीन सौ आतंकी तो मारे गये थे। लंतरानी की पराकाष्ठा यह थी कि योगी आदित्यनाथ से लेकर मुगतार अब्बास नकवी तक भारतीय सेना पर मोदी की सेना का ठप्पा लगा गए।

पुष्प रंजन
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है

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