ये कौन से गरीब हैं, जिन्हें आरक्षण मिलेगा

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आरक्षण
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आरक्षण को लेकर भाजपा और कांग्रेस जैसी मूलत: अगड़े वर्चस्व वाली पार्टियां हमेशा दुविधा में रहीं। लेफ्ट फ्रंट को भी जातिगत आधार पर आरक्षण के सिद्धांत का समर्थन क रने में वक्त लगा। संघ परिवार खुलेआम आरक्षण का विरोधकरता रहा। 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का ऐलान कि या, तो देशभर में जो मंडल-विरोधी आंदोलन चल पड़ा। उसे इन राजनीतिक दलों की शह भी हासिल थी। मंडल की काट के लिए भाजपा ने क मंडल का दांव भी खेला। आरक्षण का अगर खुलकर किसी ने विरोध नहीं किया, तो उसके पीछे पिछड़े वोट खो देने का डर था, लेकिन आरक्षण के सवाल पर भारतीय समाज कि स क दर बंटा रहा, यह विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेकर भारतीय समाज की बंटी हुई राय बताती है।

मंडल आयोग की सिफारिशों पर अमल के अपने फैसले के साथ वीपी सिंह और उनके लिए राज्यों के स्तर पर आरक्षण के प्रावधान किए जाते रहे हैं। दिलचस्प यह है कि यह राजनीति उस दौर में सबसे ज़्यादा परवान चढ़ रही है। जब आरक्षण के विरोध में दलीलें बड़ी होती जा रही हैं। यह बार-बार कहा जा रहा है कि आरक्षण के फायदे इच्छित वर्गों तक नहीं जा रहे हैं। किसी न किसी ढंग से मलाईदार तबका इसका फायदा उठा ले रहा है। यह भी क हा जा रहा है कि जब सरकारी नौकरियां लगातार कम होती जा रही हैं, तब इस आरक्षण का क्या मतलब है। अब इन सारे तर्कों के समानांतर सरकार ने आरक्षण के दरवाज़े सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए भी खोल दिए हैं। ज़ाहिर हैए यह 2019 से पहले उन सवर्णों को लुभाने की कोशिश है, जो हाल के दिनों में भाजपा सरकारों के खिलाफ आंदोलन और वोट क रते नजऱ आए।

ख़ास बात यह भी है कि इस 10 फीसदी आरक्षण का जो आर्थिक आधार सरकार ने बनाया है, उसमें मोटे तौर एक वर्ग के लिए बिल्कुल मसीहा हो बैठे, तो दूसरे के लिए बिल्कुल खलनायक। लेकिन आरक्षण की राजनीति सारी अनिच्छाओं और दुविधाओं से ज़्यादा ताक तवर निक ली। आने वाले वर्षों में आरक्षण के दायरे से बाहर खड़ी जातियां आरक्षण की मांग करती रहीं। जो इन वर्षों में कुछ और तेज़ और आक्रामक हो गई। गुर्जरों और जाटों से शुरू होकर अब यह मांग पटेलों और मराठों तक जा पहुंची है पर पूरा मध्य वर्ग शामिल हो सक ता है। दरअसल यह गरीबों को दिया जाने वाला आरक्षण नहीं है। अगर होता, तो उसके लिए गरीबी रेखा के आसपास की कोई क सौटी नियत की जाती। यह अगड़ों को आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण है। जो लोग महीने में 65,000 पये क माते हैं। वे इस आरक्षण का लाभ ले सक ते हैं। ज़ाहिर हैए इन्हें गरीब मानना गरीबों का अपमान क रना है। सवाल है, क्या सरकार यह बात नहीं समझती है। दरअसल, यहां भारतीय गरीबी का एक और पेच खुलता है।

भारत के ज़्यादातर गरीब पिछड़े, दलित, आदिवासी और मुसलमान हैं। अगर गरीबी रेखा कसौटी बनी होती, तो वहां भी यही लोग मिलते, इसलिए इन्हें आरक्षण से बाहर कर अगड़ों का आरक्षण सुनिश्चित कि या गया। लेकिन आरक्षण का यह शोशा क्या अपनी नाकामी छिपाने की सरकार की कोशिश है। क्योंकि यहां भी वही सवाल उठ रहे हैं, जो पहले से आरक्षण विरोधी पूछते रहे हैं। जब सरकारी नौकरियां बची ही नहीं हैंए तो आरक्षण के वास्तविक फायदे कि से मिलेंगे। लेकि न फिर जो समुदाय, पटेल, मराठा, जाट, गुर्जर आरक्षण मांगते रहे हैं। वे क्यों मांगते रहे हैं। क्योंकि आरक्षण के सैद्धांतिक विरोध की राजनीति को इन्हीं पार्टियों ने दो तरह से इस्तेमाल कि या। आरक्षितों को बताया कि तुम्हारे लिए तो नौकरियां ही नहीं हैं। जो आरक्षण है, वह बस झुनझुना है।

प्रियदर्शन
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये लेखक के निजी विचार हैं

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