इसे आस कहें या आस्था, संतोष या फिर लाचारी? यह एक पुरानी गुत्थी है कि हिंदुस्तानी मानस सब कुछ झेलने के बाद भी आक्रोशित क्यों नहीं होता? यह सवाल उठा, जब इंडिया टुडे के राष्ट्रीय सर्वेक्षण में यह पाया गया कि देश में तिहरे संकट के बावजूद प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बरकरार है। विपक्ष वाले अचंभे में थे, उधर सत्तापक्ष जनता को हुई तकलीफ की बातें झुठला रहा था और सरकार की पीठ थपथपा रहा था। दोनों पक्ष मानकर चल रहे थे कि जनता अगर परेशान हुई है तो सरकार से खुश नहीं हो सकती, और अगर खुश है तो मतलब उसे ज्यादा तकलीफ नहीं हुई होगी। जनमानस की इस सतही समझ से गहरे उतरने का एक तरीका है कि हम इस बीच एक और बड़े और नए सर्वेक्षण पर नजर दौड़ाएं। ‘गांव कनेक्शन’ नामक पोर्टल ने देशभर के 23 राज्यों (इसमें दक्षिण भारत के बड़े चार राज्य शामिल नहीं हैं) में 25,000 से अधिक ग्रामीणों का सर्वेक्षण कर जाना कि लॉकडाउन के दौरान उनका क्या अनुभव था, उन्हें क्या तकलीफ हुई, सरकार से क्या मदद मिली। हालांकि, सर्वे का सैंपल पूरी तरह वैज्ञानिक नहीं है, लेकिन सीएसडीएस की मदद से इस सर्वे में सवाल कायदे के पूछे हैं। इस लिहाज से यह सर्वे लॉकडाउन के ग्रामीण जनता पर हुए असर को समझने का एक नायाब जरिया है।
जून के पूरे महीने और जुलाई के पहले पखवाड़े में हुए इस सर्वेक्षण से साफ होता है कि अभी तक कोरोना की मार तो गांव तक ज्यादा नहीं पहुंची थी, लेकिन लॉकडाउन के चलते ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भारी धक्का लगा था। सिर्फ 5% परिवारों को छोड़कर सभी के काम-धंधे पर लॉकडाउन का असर पड़ा और 44% का काम तो पूरी तरह ठप पड़ गया। गांव के तीन चौथाई लोग मानते हैं कि अभी बेरोजगारी की समस्या बहुत गंभीर है। सरकार दावा करती है कि खेती-किसानी पर लॉकडाउन का ज्यादा असर नहीं हुआ, लेकिन इस सर्वे के आंकड़े इस दावे को झुठलाते हैं। कोई 40% से अधिक किसानों को कटाई और बुवाई में देरी हुई। सबसे ज्यादा नुकसान बिक्री में हुआ। सरकार के पैकेज में इसकी भरपाई के लिए एक भी पैसा नहीं था। इस धक्के का लोगों के जीवनस्तर पर सीधे असर पड़ा। यह सर्वे बताता है कि करीब आधे ग्रामीण परिवारों को लॉकडाउन के कारण खाने-पीने में कटौती करनी पड़ी। कुल एक तिहाई परिवारों को लॉकडाउन के दौरान बहुत बार (12%) या कई बार (23%) पूरा दिन भूखे रहना पड़ा। एक तिहाई परिवारों ने यह भी बताया कि उन्हें घर खर्च चलाने के लिए कर्ज लेना पड़ा या फिर जायदाद, जेवर आदि बेचने पड़े। ज्यादातर परिवार तीन महीनों में अपनी आर्थिक हैसियत में एक पायदान नीचे उतर गए।
अर्थशास्त्री बताते हैं कि ऐसे धक्के से उबरने में गरीब परिवार को कई वर्ष लग जाते हैं, कई परिवार तो कभी उठ नहीं पाते। ग्रामीण इलाकों में 63% घरों को राशन का अनाज मिला जो कि सरकार के ग्रामीण इलाकों के 75% के मानक से काफी कम है। आंगनबाड़ी या मिड डे मील का राशन सिर्फ एक चौथाई घरों में पहुंचा। वहीं मनरेगा का लाभ केवल 20% परिवार उठा सके। अगर ऐसा सर्वे शहर में हो तो और भी बुरी स्थिति दिखाई देगी, चूंकि शहर की राशन व्यवस्था कमजोर होती है और मनरेगा तो है ही नहीं। प्रवासी मजदूरों की स्थिति और भी बुरी थी। दो तिहाई प्रवासी मजदूरों ने बताया कि शहर में उन्हें सरकारी खाना नहीं मिला। रास्ते में हर आठ प्रवासी में से एक को पुलिस की पिटाई झेलनी पड़ी। लेकिन फिर भी ग्रामीण जनता के बीच असंतोष या आक्रोश दिखाई नहीं देता। तीन-चौथाई लोग इस संकट के दौरान केंद्र और राज्य सरकार की कारगुजारी से संतुष्ट हैं। यहां तक कि प्रवासी मजदूरों का दो-तिहाई हिस्सा भी सरकार से संतुष्ट है। कमोबेश यही तस्वीर इंडिया टुडे के सर्वे में भी सामने आई थी।
फिर भी यह स्पष्ट है कि जनता के बीच फिलहाल सरकार के प्रति गहरा गुस्सा नहीं है। आंकड़ों से स्पष्ट है कि ऐसा सरकार की शानदार उपलब्धि के कारण नहीं है। दरअसल, एक साधारण व्यक्ति अपनी क्षमता व सूचना के दायरे में रहकर सरकार के कामकाज की उदारता से जांच करता है। वह जानता है कि यह समस्या सरकार की पैदा की गई नहीं है और नुकसान सारी दुनिया में हुआ है, हमें भी हुआ है। वह मानता है कि अगर बीमारी उसके गांव नहीं पहुंची तो इसमें सरकार का कुछ योगदान रहा होगा। उसे उम्मीद है कि आर्थिक संकट अस्थाई है, सरकार ने अभी जो किया है, उससे ज्यादा राहत की घोषणा बाद में सरकार करेगी। लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा? जब बीमारी ग्रामीण इलाकों में फैलेगी तब क्या यही मूल्यांकन रहेगा? जब बेरोजगारी की समस्या कई महीनों तक नहीं सुलझेगी, तब लोग सरकार से संतुष्ट रहेंगे? जब हमारी सीमा के भीतर घुसकर चीन के कब्जे का सच देश के सामने आएगा, तब क्या जनता में गुस्सा नहीं आएगा? अभी से इन सवालों का जवाब देना जल्दबाजी होगी। पिक्चर अभी बाकी है।
योगेन्द्र यादव
(लेखक सेफोलॉजिस्ट और स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं ये उनके निजी विचार हैं)