यूपी में भी बिखरा विपक्ष

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यूपी में बिखरा विपक्ष बीजेपी के लिए मुश्किले नहीं खड़ा कर पा रहा। हाल यह है कि एसपी, बीएसपी और कांग्रेस के भीतर भी उपचुनाव में उतरने की अपेक्षित तैयारी नहीं दिख रही। जबकि बीजेपी ने जिन जगहों पर उपचुनाव होने हैं वहां चुनाव आयोग की घोषणा से पहले ही होम वर्क पूरा कर लिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चुनाव वाले क्षेत्रों में नई योजनाओं की आधारशिला रख दी है। सीधा संदेश है कि विकास की पीठ पर सवार होकर पार्टी जीत सुनिश्चित करेगी। यह बात और कि राष्ट्रीय मुद्दे भी अपनी महती भूमिका निभाते दिखेंगे। यह वाकई विचित्र परिदृश्य है कि सत्ता पक्ष पहले से सचेत और सतर्क है जबकि प्रतिपक्ष फ्लिप फ्लॉप मानसिकता का शिकार हुआ दिखाई देता है। पहले यूपी में विपक्ष का जायजा लें तो एसपी की हालत चिंतित करती है। यह पार्टी सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर समाजवाद को लेकर आगे बढ़ी थी। गरीब गुरबों की उम्मीद का एक समय में यह सियासी मरकज हुआ करती थी, मुलायम सिंह यादव जिसका भरोसेमंद चेहरा हुआ करते थे। मुस्लिम और पिछडो के गठजोड़ से उन्होंने कई बार यूपी की सत्ता का सुख भी उठाया, लेकिन 2014 में परिवार की ही पांच सीटों पर सिमटने के चलते सियासी पराभव का शुरू हुआ दौर अबतक बदस्तूर जारी है, यह चिंता की बात है। राज्य में 20-22 फीसदी जिस पार्टी का परम्परागत वोट बैंक रहा है उसकी आज की तारीख में हाशिये पर जाती हालत के बारे में पार्टी के लेवल पर जो विमर्श और कोर्स क रेक्शन होना चाहिए वो सिरे से नदारद दिखाई देता है।

हालांकि अभी कुछेक दिन पहले जरूर एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इशारों-इशारों में कह दिया कि परिवार से गए लोगों के लिए पार्टी के दरवाजे खुले हैं ,हालांकि शायद वो भूल गए कि पिछले दिनों पार्टी की तरफ से शिवपाल यादव की विधानसभा सदस्य्ता रद करने के लिए विधानसभा अध्यक्ष को याचिका दी गयी है। ऐसे प्रयासों के बीच अखिलेश यादव का संकेत महज औपचारिकता लगता है। पार्टी की मौजूदा दुर्गति के लिए जानकार मानते हैं कि यादव परिवार में बिखराव की वजह से एसपी को पिछले चुनाव में काफी सीटों पर नुकसान झेलना पड़ा था। खासकर इटावा समेत आस पास के यादव बाहुल्य जिलों में शिवपाल फैक्टर की बड़ी भूमिका रही थी। इसलिए नई शुरुआत के लिए अखिलेश को बड़ा दिल दिखाना होगा। क्या ऐसा कर पाएंगे। वैसे निकट के रिश्तो में बिखराव के बाद विश्वास बहाल हो पाएगा ये बड़ा सवाल है। जिस तरीके से यादव परिवार बिखरा उस वजह को दूर किए बिना नए सिरे से शुरुआत नहीं हो पायेगी यह तय है। ऐसा इसलिए कि प्रसपा के गठन से पहले शिवपाल यादव की तरफ से सुलह की कोशिश होती हुई दिखी थी। जबकि अखिलेश यादव का अडिय़ल रुख सामने आया था। बहरहाल एक होते हैं या फिर अलग अलग लड़ते हैं यह वक्त बताएगा।

वैसे एसपी से ज्यादा प्रसपा के कार्यकर्ता सडक़ों पर जनता के सवालों को लेकर उतरते दिखे हैं। यह ठीक है कि आजम खान के लिए जरूर एसपी सडक़ों पर उतरती दिखी है। यह तेजी मुलायम सिंह यादव के पिछले दिनों लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस के बाद सामने आई है। लेकिन आम धारणा यह है कि एसपी अध्यक्ष ट्विटर पर ज्यादा सक्रिय रहते हैं। इसके अलावा खुद जिलों में पार्टी के सामान्य कार्यकर्ता भी अपने अध्यक्ष के राष्ट्रीय मुद्दों पर आए बयानों से असहजता महसूस करते हैं। खासकर अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाए जाने पर एसपी की आधिकारिक जो प्रतिक्रिया सामने आई उससे पार्टी की स्वीकार्यता भी प्रभावित हुई है, ऐसा लोगों का मानना है। अब पार्टी अध्यक्ष किस तरह लेते हैं वही जानें। पर जमीन पर हालात कुछ इसी तरह के हैं। अब थोड़ी बात बीएसपी की। एसपी से अलग होकर खुद की ताकत को जानने का अवसर के रूप में मायावती यूपी के उपचुनाव को देख रही हैं। उन्हें लगता है कि यादव परिवार में बिखराव के चलते मुसलमान बीएसपी की तरफ आ सकते हैं। इसके पीछे वजह 2019 के आम चुनाव में एसपी का पांच की संख्या पर सिमटना बताया जाता है, जबकि बीएसपी को 10 सीटे हासिल हुई थीं। यह बीएसपी के लिए शुन्य से शिखर जैसी उपलब्धि थी।

वैसे बीएसपी को अलग होकर उपचुनाव लडऩे का खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है। वजह यह है कि जाटव और पसमांदा मुस्लिम के परम्परागत झुकाव के अलावा पार्टी का आधार व्यापक नहीं हो पा रहा है। इसके आलावा जिस तरह मायावती का साथ उनके विधायक दूसरे राज्यों में छोड़ रहे हैं उसका यूपी में भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वैसे बीएसपी समीकरणों की पार्टी के तौर पर जानी जाती रही है। विभिन्न जातीय वर्गों में भाईचारा कमेटियों के जरिये आधार व्यापक करने की बीएसपी की रिवायत रही है। पर बीजेपी ने गैर जाटव और अति पिछड़ों के भीतर जिस तरह अपनी राह बनाई है उसे फिलहाल चुनौती दे पाना आसान नहीं लग रहा। इसके अलावा बीएसपी नेत्री भी बीजेपी की नीतियों पर जिस नरम रुख के साथ राजनीति को आगे बढ़ा रही हैं उससे उनकी आक्रामक छवि अब यादों का हिस्सा बनती जा रही है। यही वजह है कि दलित समुदायों को चंद्रशेखर रावण जैसे युवा नेता ज्यादा भा रहे हैं। सिर्फ ट्विटर पर अपनी मौजीदगी को दर्शाने के कारण मायावती का तिलस्म पहले जैसा रह गया नहीं लगता।

जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो प्रियंका गांधी के हाथों यूपी की कमान है और पार्टी के सूत्रों की मानें तो पितृ पक्ष बाद राज्य में एक नई कांग्रेस दिखेगी। हालांकि इस बदलाव की कवायद के बीच पार्टी ने यूपी में होने वाले उपचुनाव को ध्यान में रखते हुए अभी तक 10 सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं जबकि बीजेपी नामों पर मंथन कर रही है। वैसे बीएसपी भी इस मामले में आगे है। एसपी भी नामों को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है। फिलहाल नई संभावित कांग्रस की यहां कैसी परफॉर्मेंस होगी यह नतीजे बताएंगे। लेकिन अभी तक कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने भी ट्विटर पर योगी सरकार को घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी है। यह विरोध आने वाले दिनों में सडक़ों पर कितना दिखाई देता है इससे पार्टी का राज्य में जो कद बढ़ेगा सो अलग,सबसे ज्यादा इसका असर केंद्र की राजनीति पर पड़ेगा। शायद इसीलिए कांग्रेस खुद को यूपी में किसी पार्टी की पिछलग्गू बनने के टैग से उबरना चाहती है। यहां के उपचुनाव कांग्रेस का भी भविष्य तय करेंगे।

प्रमोद कुमार सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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