कुछ दिन पहले मुझे वॉट्सएप पर संदेश आया। ‘यूनेस्को ने जन गण मन को सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगान चुना है, बधाई हो!’ खबर आई और ग्रुप पर बधाइयों का तांता लग गया। जाहिर है यह कोरी गप्प थी। सवाल यह नहीं है कि ऐसी झूठी खबर कौन, किस नीयत से हर साल चलाता है? सवाल यह है कि ऐसी खबर पर करोड़ों हिंदुस्तानी फिसल क्यों जाते हैं?
उत्तर कड़वा है: आजादी के 74 साल बाद भी हम राष्ट्रीय हीनता के बोध से बाहर नहीं निकले। आज भी राष्ट्रीय मान-सम्मान के लिए बाहरी दुनिया की ओर ताकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मंच पर कोई छोटी-बड़ी, सच्ची-झूठी उपलब्धि दिखते ही औसत भारतीय फिसल जाता है। किसी भारतीय मूल के विद्वान को मिला नोबेल पुरस्कार राष्ट्रीय गौरव का विषय बन जाता है तो दुनिया में विश्वविद्यालयों की रैंकिंग राष्ट्रीय शर्म का कारण बनती है। कभी हम विश्व सुंदरी प्रतियोगिता मैं राष्ट्रीय गौरव ढूंढते हैं तो कभी गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में।
ऐसे में ओलिंपिक में स्वर्ण पदक समेत सात मेडल जीत लेने पर राष्ट्रीय गर्व का उफान समझ आता है। बाहर से देखने वाला कोई पूछ सकता है कि जनसंख्या के हिसाब से दुनिया में दूसरे और अर्थव्यवस्था के हिसाब से चौथे पायदान पर खड़े देश के लिए मेडल तालिका में 48 वें स्थान पर आना कौन-सी उपलब्धि हुई? यूरोप और अमेरिका के अमीर देशों की बात छोड़ भी दें तो केन्या, युगांडा, जमैका, उज्बेकिस्तान और बहामास जैसे देशों से भी पीछे रहने पर उत्सव कैसा? हॉकी में 8 स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम के लिए भला कांस्य पदक में सुकून क्यों? लेकिन भीतर से देखने वाले भारतीय के लिए इस ओलिंपिक में हमारे मेडल कुछ वैसे ही थे जैसे लंबी गर्मी के बाद पहली बारिश के छींटे।
पहली बड़ी उपलब्धि है कि इस ओलिंपिक की सफलता मेडल की संख्या में नहीं बल्कि गुणात्मक है। हॉकी टीम की बड़ी उपलब्धि यह नहीं है कि उसने चार दशक बाद मेडल हासिल किया, बल्कि यह कि उसकी सफलता ने क्रिकेट के वर्चस्व से मुक्ति दिलाने की राह खोली है। पहली बार हॉकी की खबर ने भारत-इंग्लैंड के टेस्ट मैच की खबर दबा दी।
अब उम्मीद है कि आने वाली पीढ़ी के लड़के-लड़कियां हॉकी की तरफ भी आकर्षित होंगे। इस ओलिंपिक में भारतीय टीम ने कुश्ती, बॉक्सिंग, वेटलिफ्टिंग और एथलेटिक्स जैसे उन खेलों में सफलता प्राप्त की जो आसानी से हमारे गांव देहात में खेल सकते हैं। जाहिर है हमारे ज्यादातर मेडल विजेता किसान परिवार से हैं। इससे खेलों में विविधता और विकेंद्रीकरण का रास्ता साफ होता है।
दूसरी बड़ी उपलब्धि सामाजिक विविधता से जुड़ी है। इस ओलिंपिक में पहली बार देश ने महिला खिलाड़ियों का सम्मान करना सीखा। हॉकी की महिला टीम को मेडल भले ना मिला, उसे देश का प्यार पुरुष टीम से कम नहीं मिला। देश को पहला रजत पदक दिलाने वाली वेटलिफ्टर चानू साइखोम मीराबाई पूर्वोत्तर में मणिपुर से हैं।
इससे पहले अगर वे अपनी सहेलियों के साथ दिल्ली घूमने आती तो शायद उनसे कोई पूछता कि वे किस देश से हैं। क्या इस बहाने देशवासी पूर्वोत्तर से भावनात्मक रिश्ता बनाना सीखेंगे? हॉकी की हीरो वंदना कटारिया के परिवार को सिर्फ दलित होने के नाते ओलिंपिक के बीचों बीच जातीय अवमानना का सामना करना पड़ा।
चाहे रानी रामपाल हो या फिर निशा, नेहा, ग्रेस या सलीमा, महिला हॉकी टीम की अधिकांश खिलाड़ियों की कहानी गरीबी और अभाव से संघर्ष की गाथा है। इस ओलिंपिक के आईने में पूरे देश की सतरंगी तस्वीर दिखाई पड़ी, जैसा भारत है वैसी तस्वीर।
तीसरी और सबसे बड़ी उपलब्धि है अपने खोए हुए आत्मविश्वास को पाने की शुरुआत। चाहे रवि दहिया की स्वर्ण पदक न पाने पर प्रतिक्रिया हो या पुरुष हॉकी टीम का जीवट या पीवी सिंधु की सहजता, इस बार लगा कि भारतीय खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मंच पर हीन ग्रंथि को पीछे छोड़ रहे हैं। इसकी सुंदर मिसाल थी नीरज चोपड़ा की स्वर्ण पदक मिलने पर प्रतिक्रिया।
ओलिंपिक के पोडियम से जन गण मन सुनने के रोमांच से अभिभूत नीरज चोपड़ा ने मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा को याद करते हुए प्रतिद्वंद्वी जर्मनी के योहान वेटर को भी दाद दी। यह भी कहा कि काश उनके पाकिस्तानी प्रतिद्वंद्वी और मित्र अरशद नदीम को भी मेडल मिलता। इस प्रतिक्रिया में हीनबोध से ग्रस्त भारतीय की जगह स्वर्णिम आत्मविश्वास की झलक दिखी।
पराई जमीन में किसी दूसरे के बनाए पैमानों पर अपने आप को अव्वल साबित करना राष्ट्रीय आत्मसम्मान का पहला कदम भर हो सकता है। इसके लिए टोक्यो सही जगह भी थी, क्योंकि जापान ने खुद यूरोप की व्यवस्था को उनसे भी बेहतर अपनाकर अपना झंडा गाड़ा है।
राष्ट्रीय गौरव कैसा हो?
सच्चा राष्ट्रीय गौरव किसी दूसरे की नकल पर आधारित नहीं हो सकता, दूसरों की शाबाशी का मोहताज नहीं हो सकता। अपने राष्ट्रीय गौरव को किसी ओलिंपिक के मैडलों से नापने की बजाय क्या हम अपने आत्मसम्मान की अपनी कसौटियां गढ़ पाएंगे? खेल हो या अर्थव्यवस्था या फिर राजनीति, यही भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी सांस्कृतिक चुनौती है।
योगेन्द्र यादव
(लेखक और राजनैतिक कार्यकर्ता, स्वराज इंडिया हैं ये उनके निजी विचार हैं)