दिल्ली के पुलिस वाले पिट सकते हैं यह एक ऐसी खबर है, जो काल्पनिक सी लगती है। दिल्ली पुलिस की ही नहीं, देशभर की पुलिस की स्टीरियोटाइप छवि यह है कि वह घूसखोर, गलमुगया (मुंह में गाली भरकर बोलनेवाली), संवेदनहीन, अपराधोन्मुख, निर्बल को सताने वाली, सत्ता का उपांग बन जाने वाली है, जिसने देश में अपराध के दुश्चक्र को बनाए रखने में अपरिमित और अविरल योगदान किया है। यह छवि स्वातंत्र भारत की सबसे नकारात्मक सांस्थानिक छवि है, जिसे न तो कोई मुलम्मा ढंक सकता है और न ही कोई साबुन साफ कर सकता है। अकारण नहीं कि भारतीय राज्य के बारे में बहुत उदारता से विचार करने वाले भी इसे पुलिसिया राज्य कहते रहे हैं। इसीलिए जब वे अपने कथित परपीडक़ वकीलों के विरुद्ध सडक़ों पर उतरे, तो सबने कहा कि ये क्या हो गया। लेकिन वकालत के पेशे को भी सामान्य तौर पर भारतीय नागरिक बहुत सशंक तरीके से देखता है। वह वकील और न्याय प्रणाली को खसोटने वाली मशीनरी की तरह देख पाता है, जो उसे गन्ने की तरह पेर देगी। इस तरह अपराधी को दंड देने वाली और निरपराध को न्याय दिलाने वाली संस्थाएं मूलगामी तरीके से संदेह के घेरे में रही हैं। सामान्य धारणा है कि एक बार जो भारतीय पुलिस या अदालत के चक्कर में पड़ा, वह हो गया बर्बाद। हम जब भी यह कहते हैं कि भारतीय लोक तंत्र विफल हो गया, तो उनके पीछे इन दो संस्थाओं की तंत्रीय अमानवीयता, कदाचार और संवेदनहीनता रही है।
सवाल यह है कि इन दो मूलगामी संस्थाओं की बिगाड़ की वजह है क्या? जान पड़ता है कि इनका गोमुख है राजनीतिक वर्ग। पॉलिटिकल क्लास, सत्ताधाराी वर्ग क्लास, सत्ताधारी वर्ग। इस राजनीतिक वर्ग ने तंत्र पर उल्टा-सीधा नियंत्रण बनाए रखने के लिए पुलिस और थानों का इस्तमाल किया, जो कमजोरों को डराने, सच को झूठा साबित करने, निरपराध को दोषी बना देने, शिकायतों को डांट-डपटकर चुप करा देने, लाभ और पैसे के लिए दबंगों का साथ देने, हड़पने, आंदोलनों को कुचलने, आतताइयों का अनैतिक सुरक्षा घेरा बनाने के लिए कुख्यात होते रहे। अनैतिक राजनीतिक वर्ग ने पुलिस को अनैतिक होने की छूट दी। इस तरह थाने मनमानीपन के गढ़ बनने लगे। सार्वजनिक धारणा यह बनी कि पैसा नीचे से ऊपर तक जाता और बंटता है। अदालतें वकीली तिकड़मों का प्ले ग्राउंड बन गईं। पैसा लेकर फैसले देने की खबरें लगातार आती रहीं, लेकिन अदालती अवमानना और कदाचार साबित करने के लिए साक्ष्य लाने का गोरखधंधा खड़ा करके तंत्र सड़ता रहा। ताकत और धन निर्णयों को खाते-चबाते रहे। लेकिन सबसे भयानक बात यह हुई कि पुलिस और न्याय प्रणाली के तंत्र को दुरुस्त करने की कोई बड़ी मंशा गायब रही। इसकी शायद बड़ी वजह यह थी कि इस तरह तो शासक वर्ग के बने रहने का आधार ही नष्ट होने लगता। गहरी चोट करने पर अपराध और राजनीति के बीच के संबंध भी तो आहत होते।
पूंजी और राजनीति के बीच की अनैतिक संधियों का क्या होता? तो पुलिस और न्याय तंत्र को सुधारने की कोई मूलगामी पहल नहीं की गई। लेबनान में इन दिनों बेरुत की सडक़ों पर वे लोग उतरे हुए हैं, जो कह रहे हैं कि उन्हें वहां की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था पर कोई भरोसा नहीं है। वे जो कर रहे हैं, उसे क्रांति नहीं कहा जा सकता- इस अभूतपूर्व जमावड़े में संभवत: एक भी आदमी मारा नहीं गया है। ये लोग डेमोक्रेसी नहीं टेक्नोक्रेसी की बात कर रहे हैं, जिसमें देश के अपने-अपने विषयों के सबसे अधिक जानकार और समझदार लोग अलग-अलग मंत्रालयों को संभालेंगे। तो डगमगाते भारतीय लोक तंत्र और अर्थतंत्र में जहां जन प्रतिनिधियों के नाम पर (सब नहीं, लेकिन बहुत सारे) अपराधी चुनकर आ रहे हों और एक प्रतिशत के हाथ में देश की 51 फीसदी परिसंपत्ति बटुर कर रह गई हो, तो भारतीय संदर्भ में भी टेक्नोक्रेसी एक विकल्प सरीखी लग रही है, जिसमें अमत्र्य सेन को अर्थ व्यवस्था, मेधा पाटकर को गृह, राजेंद्र सिंह को जल संसाधन, प्रशांत भूषण को वैधानिक मामले, रवीश कुमार को सूचना और प्रसारण, पी. साईनाथ को ग्रामीण विकास, योगेंद्र यादव क शिक्षा और मिनिल्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस की लेखिका अरुंधती राय को प्रसन्नता मंत्रालय का कारोबार दिया जा सकता है! यह विकल्प का सपना है, जिसके लिए एक वैकल्पिक राजनीति और वैकल्पिक नागरिकता की दरकार होगी, जो देशव्यापी नवजागरण के बिना संभव नहीं दिखता।
देवी प्रसाद मिश्र
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)