भारत विरोधी है श्रीलंका का नया राष्ट्रपति

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बचपन में जब नाई की दुकान पर बाल कटवाते समय उठती-गिरती आवाज में आ रहे पुराने गाने को रेडिया पर सुना करता था तब रेडियो सिलोन से जो आनंद मिलता था उसे बता नहीं सकता हूं। हालांकि भारत और (श्री)लंका के संबंध कभी मधुर नहीं रहे व रामायण काल से ही खराब चले आ रहे थे। राजीव गांधी के शासन में जब शांति रक्षक भारतीय सेनाओं का तमिल टाइगर आतंकवादियों के साथ टकराव हुआ तो संबंध और खराब हो गए।

अब श्रीलंका के नए राष्ट्रपति के सत्ता में आने के साथ संबंधों की अटकले शुरू हो गई हैं। यह श्रीलंका का 8वां राष्ट्रपति चुनाव था क्योंकि तत्कालीन राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेना का कार्यकाल 9 जनवरी 2020 को समाप्त हो जाएगा। यह पहला ऐसा चुनाव था जिसने वहां के किसी मौजूदा राष्ट्रपति प्रधानमंत्री ने या विपक्ष में नेता ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ना उचित नहीं समझा। घोर राष्ट्रवादी कर्नल गोटाभाया राजपक्षे न केवल नेता बल्कि पूर्व सैन्य अफसर व 2005 से 15 तक श्रीलंका के रक्षा मंत्री व शहरी विकास मंत्री भी रह चुके हैं। वे श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई हैं।

काफी विवादास्पद रहे इस नेता को देश के तमिल टाइगर्स को हराकर वहां के नागरिक युद्ध को समाप्त करने के लिए हमेशा जाना जाएगा। वे श्रीलंका के एक राजनीतिक परिवार में पैदा हुए थे। राजपक्षे परिवार श्रीलंका की राजनीति में बहुत अहमियत रखता है। उन्होंने सेना की नौकरी जल्दी छोड़कर सूचना तकनीक की पढ़ाई करने के लिए अमेरिका जाना बेहतर समझा। वे 1998 में अमेरिका में बस गए व वहां की नागरिकता ले ली। बाद में वे वापस स्वदेश लौटे व उनकी अगुवाई में श्रीलंका की सेना ने वेलुपिल्लई प्रभाकरण को 2009 में मारकर यह युद्ध समाप्त करने में सफलता हासिल की।

यह वहीं आतंकवादी था जिसने पूर्व युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या करवाई थी। आत्मघाती लिट्टे आतंकवादियों ने दिसंबर 2006 में उनकी हत्या की असफल कोशिश की। उनके बड़े भाई ने उन्हें देश का रक्षा मंत्री बनाया व 2015 में भाई की हार के बाद वे इस पद से हट गए। गोटाबाया का मतलब विशाल होता है। वे हमेशा विवादों में घिरे रहे। कहते हैं कि उन्हेंने लिट्टे को हराने के लिए उसके करूणा धन का इस्तेमाल किया। उसके कमांडर कर्नल करूणा ने ब्रिटेन को बताया था कि गोटाबाया ने उसके ब्रिटेन भागने के लिए उसे नकली पासपोर्ट उपलब्ध करवाया था।

हालांकि बाद में सरकार ने इस आरोप का खंडन कर दिया। विद्रोह को कुचलने के लिए मानवाधिकारो के हनन को लेकर संयुक्त राष्ट्र व यूरोपीय सरकारों ने उनकी जमकर आलोचना की। कहते हैं कि उनके इशारे पर ही वी प्रभाकरण के किशोर बेटे को गोली मारी गई। उन्हें संयुक्त राष्ट्र पर श्रीलंका में 30 सालों तक आतंकवादियों की घुसपैठ करवाए जाने का आरोप लगाया ताकि वे लोग उसे गलत जानकारी भेज सकें। गोटाबाया ने कहा कि यूरोपियन यूनियन व ब्रिटेन श्रीलंका की कुछ खास मदद नहीं करते हैं व उसे उनकी जरा भी चिंता नहीं है उसे वे लोग नहीं चाहिए।

रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने तमिलो के इलाके में एक अस्पताल को बरबाद कर दिए जाने को सही ठहराया। उन पर तमाम अपने विरोधियों को अपहरण कर उन्हें मरवाने के आरोप लगे। उन पर एक विदेशी पत्रकार कीथ नोमाहर. का अपहरण कर उसे मरवाने का आरोप लगा। गोटाबाया के कहने पर सरकार ने इस अपराध में शामिल एक हत्यारे बंदारा बुलाथ वट्टेवास को थाईलैंड में राजनयिक नियुक्त किया। उन पर अपने विरोधी पत्रकारों को मरवाने का आरोप हैं। उन पर मानवाधिकार विशेषज्ञ वकील गदाराजा रविगज को करूणा आतंकवादी द्वारा मरवाने का आरोप लगा।

बताते हैं कि वे अपने विराधी पत्रकारो को यह कहकर धमकाते थे कि तुम्हारा क्या होगा यह मेरे बस से बाहर है। न्यूयार्क टाइम्स ने उनके बारे में 5 दिसंबर 2005 को लिखा था कि उनकी धमकियों के कारण कोई भी पत्रकार उनके अभियान के खिलाफ नहीं लिख सकता था। हालात इतने खराब हो गए कि 16 अगस्त 2011 को द हिंदू अखबार ने अपने संपादकीय ‘नियंत्रण के बाहर भाई’ शीर्षक के तहत लिखा कि राष्ट्रपति राजपक्षे को अपने भाई से दूर हो जाना चाहिए।

देश में उनके खिलाफ दो राष्ट्रो की नागरिकता के मुद्दे पर काफी विवाद हुआ। मगर उनके भाई महिंद्रा राजपक्षे ने अपने प्रभाव से उन्हें श्रीलंका की नागरिकता देते हुए उनकी अमेरिकी नागरिकता समाप्त कर दी व अदालत में यह मामला शांत हो गया। अब उनके श्रीलंका का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद सबसे अहम बात यह हो गई है कि भारत के लिए उनका इस पद पर चुना जाना कैसा रहेगा। डिर्टामनेटर के नाम से चर्चित इस 70 वर्षीय नेता ने भारत समर्थक माने जाने वाले विरोधी प्रेमदास को 13 लाख वोटो से हराया है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही उन्हें जीत की बधाई देने वाले नेताओं में सबसे पहले रहे हो मगर उन्हें चीन समर्थक माना जाता है। उनके बड़े भाई ने सत्ता में रहते हुए चीनी आर्थिक सुरक्षा नीति का अनुसरण किया था। श्रीलंका बुरी तरह से चीन के उधार में फंसा हुआ है वहां के आधारभूत ढांचे में चीन ने काफी ज्यादा निवेश किया हुआ है। पहले भी श्रीलंका को जापान से सबसे ज्यादा आर्थिक मदद व दान मिलता था। जब चीन खुलकर पाकिस्तान की मदद कर रहा हो व नेपाल में पहले से ही चीन समर्थक माओवादी सरकार सत्ता में आ गई है तो श्रीलंका का गोटाबाया के हाथ में जाना किसी भी तरह से भारत के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है। पहले भी गोटाबाया मोदी सरकार पर मुद्दो को पूरी तरह से समझे बिना उठाने व अपने देश के मामलो में आतंरिक हस्तक्षेप करने के आरोप लगाते आए हैं।

विवेक सक्सेना
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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