एक गांव में बरगद का एक पेड़ काफी वर्षों से खड़ा था। उस गांव के लोगों के अलावे आते-जाते राहगीर उस पेड़ की छाया में बैठा करते थे। गांव के बच्चे उस पेड़ में झुला लगाकर झुलते और खेला करते, गांव की महिलाएं वट सावित्री व्रत पर उस वृक्ष की पूजा किया करती। दिन ऐसे ही बितते गए और कई वर्षों बाद बरगद का पेड़ सूखने लगा। उसकी शाखाएं (टहनियां) टूटकर गिरने लगी। जड़े भी कमजोर होने लगी।
यह देखकर गांववालों ने विचार किया कि अब इस पेड़ को काट दिया जाय और इसकी लकड़ियों से गरीब लोगों के लिए झोपड़ियों का निर्माण किया जाये ताकि उन्हें रहने को घर मिल सकें। दूसरे दिन गांव के लोग आरी, कुल्हाड़ी लेकर उस बरगद पेड़ के पास पहुंच गए। तभी बरगद पेड़ के पास खड़ा एक वृक्ष बोला, दादा आपको इन लोगों की प्रवृत्ति पर जरा भी क्रोध नहीं आता। जब तक आप जवान थे तब तक यही लोग आपके छाव में बैठकर दिन गुजारा करते थे आज जब आप बूढ़ा हो गए तब यह लोग आपको काटने को उतारू है।
ये कैसे स्वर्थी लोग है, जब इन्हें आपकी आवश्यकता थी तब ये आपकी पूजा किया करते थे, लेकिन आज आपको टूटते हुए देखकर काटने चले आये है। इस पर बूढ़े बरगद ने बड़ी ही शालीनता से मुस्कराता हुआ जवाब दिया नहीं बेटे! मैं तो यह सोचकर बहुत प्रसन्न हूं कि मरने के बाद भी मैं आज किसी के काम आ सकूंगा।
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