बिहार : नेताओं में बस जाति की बात

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देश के गौरवशाली इतिहास का प्रतीक बिहार राज्य के साथ एक दुर्भाग्य भी जुड़ता चला जा रहा है। जिस राज्य से महात्मा गांधी ने अंग्रेजों से आजादी के अपने अभियान को शुरू किया था। जिस राज्य की धरती से 70 के दशक में भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ एक अभियान शुरू हुआ था, वही बिहार अब विकास के पायदान में सबसे पीछे रहने के लिए अभिशप्त है। बिहार की जनता ने अपने नेताओं को सर-माथे पर बैठाने से कभी गुरेज नहीं किया। बिहारी जनता ने जिस नेता को भी प्यार दिया, भरपूर दिया। जब कांग्रेस के साथ रही तो पटना से लेकर दिल्ली तक के तख्त पर बैठाने में अपना योगदान दिया। जब सामाजिक न्याय के नारे पर भरोसा कर लालू यादव को सत्ता थमाई तो पटना से लेकर दिल्ली तक लालू यादव का अलग ही जलवा हुआ करता था। लालू राज के बाद बारी आई नीतीश कुमार की और नीतीश कुमार ने भी एक दौर में न केवल समता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड बल्कि भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दल को भी अपनी मर्जी से चलाया।

लेकिन ऐसे बिहार का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि यहां के नेता विकास की कम और जाति की बात ज्यादा करते हैं। आजादी के बाद कई दशकों तक कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने ही बिहार का शासन चलाया लेकिन उस समय भी कांग्रेसी नेता अपने ही सत्ताधीन मुख्यमंत्री पर जाति के आधार पर भेदभाव करने का आरोप लगाया करते थे। बिहार के राजनीतिक इतिहास में इस तरह के पत्रों के आदान-प्रदान के किस्सों की भरमार है।

सामाजिक न्याय के दौर में बिहार– 31 साल बाद भी सिर्फ जाति की बात ?

1990 के बाद बिहार में एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन हुआ जिसे लाने वालों ने इसे सामाजिक न्याय का नाम दे दिया। यह दावा किया गया कि बिहार में सदियों से जो सामाजिक स्तर पर भेदभाव किया गया, उसे बदलने का अब सही वक्त आ गया है। 1990 में लालू यादव पहली बार जनता दल के नेता के तौर पर भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद शुरू हो गया मंडल और कमंडल का दौर। इन दोनों ने देश के साथ-साथ बिहार की राजनीति को भी बुरी तरह से प्रभावित कर दिया। बिहार जातीय हिंसा और तनाव के एक ऐसे गहरे कुंए में फंस गया जिसने बिहार को बर्बाद कर दिया। प्रतिभाओं का पलायन होने लगा और फिर इस लालू राज को जंगल राज बताते हुए लालू के सबसे करीबी रह चुके नीतीश कुमार ने 1994 के बाद से ही भाजपा के सहयोग से लालू विरोध का बिगुल बजा दिया। हालांकि उन्हें कामयाब होने में 11 साल लग गए। 2005 में उन्होंने लालू और उनकी पत्नी के राज का अंत कर बिहार के मुख्यमंत्री का पद संभाला। उनके 5 साल के पहले कार्यकाल में विकास की बयार बहुत तेजी से आगे बढ़ी लेकिन बाद में यह रफ्तार थम गई और ऐसा साफ-साफ नजर आने लगा कि अब नीतीश कुमार का भी सारा ध्यान वोट बैंक को मजबूत कर चुनाव दर चुनाव जीतना भर रह गया। पिछले 16 वर्षों से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं लेकिन कभी उन्हें दलित-महादलित का कार्ड खेलना पड़ता है तो कभी पिछड़ी जातियों का राग अलापना पड़ता है।

बिहार का दुर्भाग्य देखिए कि पिछले 31 सालों से सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाले लोगों का ही शासन है, जिनका लक्ष्य बिल्कुल स्पष्ट था कि उन्हें विकास की दौड़ में पिछड़ चुकी जातियों को आगे लाना था। हर तरह से दलित, पिछड़े लोगों का विकास करना था लेकिन विडंबना देखिए कि 31 साल तक बिहार पर राज करने के बाद भी उन्हें देश के प्रधानमंत्री के सामने जाकर गुहार लगानी पड़ती है कि जनगणना में पिछड़ी जातियों की भी गणना करवा दीजिए ताकि उस आधार पर हम आरक्षण बढ़ाने की मांग कर भविष्य में भी अपने वोट बैंक को मजबूत कर सकें। दिलचस्प तथ्य तो यह है कि प्रधानमंत्री से मिलने वाले सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के अलावा बिहार और देश पर दशकों तक राज कर चुके कांग्रेस नेता, वर्तमान में देश और बिहार पर राज करने वाले भाजपा नेता, जाति-धर्म की राजनीति से अपने आपको ऊपर मानने वाले लेफ्ट के सभी घटक दलों के नेताओं के साथ-साथ ओवैसी की पार्टी के विधायक भी शामिल थे। मतलब वोट बैंक के बंटवारे के इस दौर में कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता।

सबने की जाति की बात– विशेष राज्य के दर्जे की अब कौन करेगा मांग ?

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग को लेकर नीतीश कुमार कई चुनावों में जीत हासिल कर चुके हैं। वास्तव में 2014 से पहले यह उनका ट्रंप कार्ड हुआ करता था जिसका इस्तेमाल उन्होंने कई बार किया लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि इस बार जब वो बिहार के सभी राजनीतिक दलों का सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल लेकर देश के मुखिया से मिले तो उन्होंने भी सिर्फ जाति की ही बात की। उन्हें यह भी याद नहीं रहा कि उसी बिहार की विधानसभा में आज से 15 साल पहले वर्ष 2006 में बिहार को विशेष राज्य देने के मुद्दे पर चर्चा हुई थी और उसी समय इस मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने का समय भी मांगा गया था जो मिल नहीं पाया। इस बार बिहार के सभी नेताओं को विकास के इस मुद्दे पर बात करने का मौका मिला था लेकिन ये सब चूक गए। बिहार की जरूरत आज जाति नहीं बल्कि विशेष आर्थिक पैकेज, केंद्रीय सहायता और विशेष राज्य का दर्जा है लेकिन बिहारी नेता आज भी जातियों के जोड़-घटाव में ही जुटे हुए हैं।

संतोष पाठक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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