बदल रहा है मनोरंजन का मुहावरा

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टाइम्स के ओटीटी (डिजिटल) प्लैटफॉर्म एमएक्स प्लेयर पर इन दिनों क्वीन नाम की वेब सीरीज काफी देखी जा रही है। यह तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के जीवन पर आधारित है। 1999 में सिमी ग्रेवाल ने अपने मशहूर टॉक शो ‘रांदेवू’ में जयललिता से एक घंटे लंबी बात की थी जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी के वे पन्ने खोले थे, जो तब तक बंद थे और चेन्नै तथा दूसरे तमिल शहरों के मोहल्लों-गलियों में गॉसिप का हिस्सा थे। बीस साल बाद उसी बातचीत को एक कहानी में समेट कर दिखाने का साहस किया गया, जिसमें जयललिता का प्रेम है, नफरत है, राजनीति में घुसने की जद्दोजहद है। ऐसी कई सारी बातें हैं, जिन्हें देखना-सुनना उन के अनुयायियों को बुरा लगेगा। फर्ज कीजिए, ये काम किसी फिल्म ने किया होता, तो क्या होता? करणी सेना की तरह जयललिता के मूर्तिपूजक फिल्म ही रिलीज नहीं होने देते। चुपचाप, बिना किसी प्रचार के फिल्म रिलीज भी हो जाती तो इसे चलाने वाले थिअटर आग के हवाले कर दिए जाते। लेकिन यह कहानी डिजिटल प्लैटफॉर्म पर आई है तो आप चाह कर भी बवाल नहीं मचा सकते। देश के 46 करोड़ इंटरनेट यूजर्स का डेस्कटॉप, लैपटॉप, आईपैड और मोबाइल आपको तोडऩा होगा, जो असंभव है। इस एक उदाहरण से साफ है कि डिजिटल प्लैटफॉर्म्स उमीदों का नया जादू-बक्सा है।

यह बुद्धू-बक्सा नहीं, जिसे आप सेंसर या किसी और तरी के से नियंत्रित कर ले जाएं। हालां कि यह सुगबुगाहट तेज है कि डिजिटल मीडिया को भी नियंत्रण के दायरे में आना चाहिए, लेकिन यह मुश्किल है। भारत में पॉर्न साइट्स पर पाबंदी है, फिर भी वे देखी जा रही हैं। यहां प्रॉक्सी के दरवाजे हैं। सेंसर से मुक्त होने की वजह से डिजिटल प्लैटफॉर्म्स ऐसी कहानियां कहने की हिमत दिखा पा रहे हैं, जो दूसरे माध्यमों में बहुत मुश्किल था। पिछले साल नेटकिलक्स पर ‘लीला’ नाम की वेब सीरीज रिलीज हुई और खूब देखी गई। इसमें भविष्य के भारत को नाजी जर्मनी वाले संस्करण में दिखाया गया। आजकल फैज की एक नज्म ‘हम देखेंगे’ सुर्खियों में है, क्यों कि आईआईटी कानपुर में एक ऑफिशल कमेटी बनाई गई है, जो जांच करेगी कि यह हिंदू विरोधी है या नहीं। उर्दू की विरासत पर शक करने का यह माहौल लीला में ज्यादा संगीन तरीके से दिखाया गया है, जहां किसी भी उर्दू शायर को पढऩा या सुनना जुर्म है। हमारे यहां पारंपरिक दृश्य माध्यमों में इतिहास-बोध को लेकर एक खास किस्म की उदासीनता रही है। इसके पीछे कारण सिर्फ बाजार नहीं है, बल्कि सबसे बड़ी वजह साा का नियंत्रण है।

इमर्जेंसी के दौर में अमृत नाहटा ने एक फिल्म बनाई थी ‘किस्सा कुर्सी का’, जिसमें इंदिरा गांधी की तानाशाही पर व्यंग्य किया गया था। सरकार ने इसे बैन कर दिया था। कहते हैं कि तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अनऑफिशल निर्देश पर इस फिल्म का प्रिंट भी गायब कर दिया गया था। बाद के दौर में इतिहास के नाम पर प्रॉपेगेंडा फिल्में ज्यादा बनी हैं। क्वीन एलिजाबेथ के जीवन पर एक वेब सीरीज काफी चर्चित हुई है, ‘द क्राउन’। इसमें ब्रिटिश राजघराने के ढेरों अनकहे किस्से दर्ज किए गए हैं। ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ अमेरिका की वाइट हाउस पॉलिटिक्स से जुड़ी साजिशों की पोल खोलती है। हम भी ऐसी वेब सीरीज बना सकते है लेकिन हमारे यहां के मेकर्स टीवी और सिनेमा के क्लीशे में फंसे हुए हैं। यहां डिजिटल प्लैटफॉर्म भी वही तरकीबें अपना रहा है, जो डेली टीवी सोप में अपनाई जाती हैं। कास्टिंग का दबाव और केंटेंट को लोकप्रिय जुमलों में लपेटने की मजबूरी। लेकिन ये दबाव ज्यादा टिक नहीं पाएंगे, क्योंकि डिजिटल प्लैटफॉर्म्स पर दो ही चीजें चलेंगी। गहराई वाला कंटेंट या फिर एकदम उथला कंटेंट। उल्लू नाम की एक वेबसाइट है, जो सिर्फ सॉफ्ट पॉर्न दिखाने के चलते काफी सारे सक्स्क्राइबर्स जुटा चुकी है।

एकता कपूर के डिजिटल फोरम ऑल्ट बालाजी की चाल भी बेढंगी हो गई है, जहां ‘गंदी बात’ जैसी वेब सीरीज के सीजन्स फूहड़ तरीके से बनाए जा रहे हैं। जबकि ऑल्ट बालाजी की शुरुआत ‘बोस : डेड ऑर अलाइव’ जैसी शॉर्ट सीरीज से हुई थी, जो सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु से जुड़े मिथ पर आधारित थी। अब टीवी पर डेली सोप में दर्शकों की रुचि कम हो रही है, कयोंकि डिजिटल प्लैटफॉर्म्स पर दुनिया भर की वेब सीरीज हिंदी में उपलब्ध हैं। मैं पिछले दिनों बिहार में एक वेब सीरीज शूट कर रहा था, तो एक निजी सर्वे में पाया कि गांवों के लोग भी अब मोबाइल पर फिल्में और वेब सीरीज देख रहे हैं। उन्हें टाइस के एमएक्स प्लेयर का नाम अच्छी तरह मालूम है, क्योंकि यह फिलहाल फ्री है। टीवी के चालू तरीकों से उनमें धीरे धीरे ऊब पैदा हो रही है। जाहिर है, टीवी पर अपना कंटेंट अपग्रेड करने का दबाव बन रहा है। इसलिए भी, क्योंकि टीवी सीरियल्स अब डिजिटल प्लैटफॉर्म पर भी उपलब्ध हो रहे हैं लिहाजा उनका रिपीट वैल्यू है। दर्शक पुराना भूलकर आगे नहीं बढ़ेंगे, बल्कि रिवाइंड करके पुरानी विडिय़ों का झोल खोज लेंगे। यही डिजिटल प्लैटफॉर्म्स की जीत है, जिसे नजरअंदाज करना नामुमकिन है।

अविनाश दास
(लेखक पत्रकार और फिल्मकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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