विकास के क्रम में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की भी एक सीमा है। बढ़ती आबादी से मूलभूत जरूरतों को भी पूरा कर पाना किसी के लिए भी चुनौती जैसा है। अच्छा ही हुआ पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बढ़ती आबादी को विस्फोट बताते हुए उससे उत्पन्न खतरों के प्रति देशवासियों को आगाह किया, साथ ही आवहन भी किया कि अब वक्त आ गया है कि हम बेलगाम आबादी को थामने की दिशा में गंभीरता से सोचें। बेशक इस मामले में सरकार की अपनी भूमिका है लेकिन इससे भी बड़ी और अपरिहार्य भूमिका परिवार-समाज के स्तर पर है। जिस रफ्तार से देश की आबादी बढ़ रही है, यदि इसके बारे में ठोस पहल ना हुई तो तय मानिये 2025 तक डेढ़ अरब आबादी हो जाएगी।
सोचा जा सकता है कि तब मूलभूत जरूरतें अनाज, पानी और साफ-सुथरा हवा के साथ ही रोजगार की कितनी बड़ी किल्लत होगी। मौजूदा स्थिति में देश के कई इलाकों में पानी का संकट गहराता जा रहा है। जल संचयन के प्रति तनिक भी रुचि लोगों में नहीं है। स्थिति यह है कि गर्मी के दिनों में लोगों को पीने के पानी के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। शहरों में खासकर इस दिनों में जल स्तर नीचे खिसकवे से हैण्डपम्प भी सूख जाते हैं और एकाध पम्प कहीं काम करते भी हैं तो वहां लंबी लाइन देखी जा सकती है। गावों की हालत भी बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं रह गई है। तालाब एक सिरे से गायब हैं। कुओं का वजूद भी खत्म होता जा रहा है। वृक्ष लगाने के प्रति लोगों की पहले जैसी गंभीरता रह नहीं गई। स्थिति यह है कि कि कहीं सूखे की स्थिति है तो कहीं बाढ़ की स्थिति है।
ऐसे हालात में कल्पना कर सकते हैं आगे चलकर पानी की किल्लत कितनी बढ़ सकती है। खाद्यान्न को बढ़ाने के लिए लम्बें समय से रासाजनिक खादों के इस्तेमाल का असर ये है कि धीरे-धीरे कृषि योग्य जमीनों की उर्वरता भी कम होती जा रही है। ऐसे प्रदूषित अनाओं के सेवन से शारीरिक और मानसिक रोग अगलग से लोगों की जिन्दगी का हिस्सा बन रहे हैं। इस लिहाज से भी जनसंख्या नियंत्रण पर सोचे जाने की जरूरत है। यह ऐसा विषय है जो परिवार और समाज के स्तर पर हमें बहुत गहराई तक प्रभावित करता है। हालांकि 70 के दशक में ही यह नारा बहुत लोकप्रिय हो चुका था कि हम दो हमारे दो। अब इसको ज्यादा गंभीरता से समझने का समय आ गया है। प्रधानमंत्री ने हालांकि उन लोगों की तारीक करते हुए यह भी कहा कि जो लोग छोटे परिवार की दिशा में अपना योगदान दे रहे हैं, वे भी एक तरह से देशभक्त हैं।
क्योंकि उनके इस कदम से बेशक उन्हें परिवार के तौर पर अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा और परवरिश का भरपूर अवसर मिलता है तथा इससे देश के संसाधनों पर भी कम भार पड़ता है। यह किसी भी देश के विकास की यात्रा में मील का पत्थर साबित हो सका है। इस सबके बीच यह सुखद खबर भी है कि देश में तीस करोड़ परिवार ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपने परिवार को एख या दो बच्चों तक सीमित किया है। जरूरत है, यह अभियान कुछ हिस्सों तक नहीं बल्कि देश भर में लोगों के लिए अनुष्ठान बने ताकि आने वाले वर्षों में नियंत्रित अबादी के साथ ही विकासित देशों की कतार में खड़े होने की प्रात्रता हासिल कर सकें।