बच्चों के पीछे सीसीटीवी बनकर न घूमें

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लाइफ की इंजीनियरिंग क्या है? ये शरीर भी तो मशीन है। सेहत-मन वाणी, भावनाओं और व्यवहार का सिस्टम हमने सीख लिया तो मशीन एकदम फिट रहेगी। बस, जीवन का यही सही सामंजस्य तो लाइफ इंजीनियरिंग है। सोशल मीडिया कहां ले जा रहा है देख लीजिए,आज छोटे-छोटे बच्चों के हाथ में मोबाइल है। इंटरनेट की खुली किताब उनकी ईजी अप्रोच में है। इसमें उनके देखने और न देखने वाला सारा कंटेंट है। इंडिया ऑन मोबाइल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार 5-11 साल तक के 66 मिलियन बच्चे अपने पेरेंट्स का फोन यूज करते हैं। ये ऑल ओवर एटिव यूजर्स के 15 परसेंट हैं। अब बड़ा सवाल ये है कि हम इन्हें कैसे मर्यादित करें? केवल परवरिश से संभव है। आप ही बताइए जी, अपने बच्चों को कितने दिनों तक बांध कर रखेंगे? इस खुलेपन में आखिर कब तक आप उनके पीछे सीसीटीवी बनकर रहेंगे? हां, ये सही है कि आज के बच्चों की जिंदगी में ऐसे प्रलोभन जल्दी आ गए हैं। हमें उनमें समझ विकसित करनी होगी। उन्हें टेनोलॉजी को नॉलेज और विज्डम की ओर ले जाना होगा। हमें बच्चे पर ट्रस्ट करना होगा। और इसके बाद भी वे खुद ट्राई करना चाहें तो करेंगे।

आपके माध्यम से बच्चों को भी एक बात कहना चाहता हूं कि जीवन में आदर्श कुछ नहीं होता है। पेरेंट्स में भी कमियां होती हैं। वे कोई भगवान थोड़े ही हैं। हां, आदरणीय हैं। वो अंग्रेजी में कहते हैं ना…वैल्यूज आर नोट टॉट, वैल्यूज आर कॉट। हिंदी थोड़ी कमजोर है जी।(फिर हंसने लगते हैं) हम भी वैसे राजस्थानी ही हैं, लेकिन पीढिय़ों पहले बाहर जा कर बस गए थे। आप समझिए, सोशल मीडिया समस्या नहीं है। इसके उपयोग करने में दिकत है। ये तो टूल्स हैं। बशर्ते हम इनका सही और संतुलित उपयोग कर पाएं। अब आज की परिस्थिति में ट्रेडिशन में जाना तो संभव है नहीं। आज आप बिना लाइट, एसी-हीटर के रह सकते हैं क्या? अब प्राचीन काल की तरह हिमालय की चोटियों की चोटियों में तो ध्यान लगाया नहीं जा सकता। लेकिन हां, हमें प्राचीन सिद्धांत जरूर फॉलो करने चाहिए। उनमें ही जीवन का सार है। मुझे नहीं लगता कि राजनीति हमें पीछे ले जा रही है। हां इतना जरूर है कि चाहें राजनीतिज्ञ हो, गुरु हो या मार्गदर्शक, उन्हें देश की नींव नहीं बदलनी चाहिए। प्रिंसिपल फॉलो होने चाहिए। आज धर्म की चर्चा बढ़ी है। बाबाओं के प्रवचन बढ़ रहे हैं।

इस पर क्या कहा जाए? स्प्रिच्युअल स्पीच को तो लोग आज मनोरंजन के तरीके से देख रहे हैं। वे स्पीच सुनते हैं और फिर अपने जीवन में मशगूल हो जाते हैं। सिर्फ सुनना काफी नहीं है, जरूरी उसे जीवन में उतारना है। स्पीकर और गुरु को भी लोगों के जीवन में उतरना चाहिए। लेकिन आजकल के बाबा तो…। कोचिंग का पैटर्न सही नहीं। मुझे लगता है कि हमारा सारा एजुकेशन सिस्टम ही डिमॉलिश हो गया है। हर व्यक्ति में अलग-अलग आग होती है। आइंस्टीन ने कहा था कि मछली, ब्लिली , हाथी और घोड़ा सभी की पेड़ पर चढऩे की परीक्षा नहीं ली जा सकती है। मछली तो ऐसे एग्जाम के नाम से ही आत्म हत्या कर लेगी। आज बच्चे भी तो यही तनाव झेल रहे हैं। हमारा एजुकेशन सिस्टम ही ऐसा हो गया है। पेरेंट्स को भी समझना होगा कि मछली तैर सकती है। उसकी परीक्षा तैरने की होनी चाहिए। न की पेड़ पर चढऩे की।

आज सारे बच्चों को ऐसे ही हांका जा रहा है, जो गलत है। बच्चों में कॉन्फिडेंस पैदा करना होगा। उन्हें करिअर नहीं लाइफ ट्रैक देना होगा। करिअर तो वो अपने आप बना लेंगे। उन्हें संस्कार देने होंगे। ये सिर्फ कोरे ज्ञान से नहीं होगा। परिवार में पैरेंट्स को एग्जामपल सेट करना होगा। युवा पीढ़ी के लिए मेरे पास सिर्फ एक ही शब्द है…फोकस। चाहे रिश्ते, सेहत, अध्यात्म हो क्या कोई भी दूसरा क्षेत्र, बस फोकस सबसे ज्यादा जरूरी है। जैसे सूर्य की बिखरी किरणों का कोई उपयोग नहीं होता लेकिन सोलर कुकर में उन्हीं किरणों को एक जगह फोकस कर खाना पकाया जा सकता है। एनर्जी बनाई जा सकती है। वैसे ही हमें भी अपने भीतर की पूरी पावर को सौलर की तरह यूज करना चाहिए। दुखी होने के तो हजार कारण हो सकते हैं लेकिन हमें हर पल छोटी-छोटी खुशियों के रास्ते खोजने हैं। बस मेरी तो लाइफ का यही फंडा है।

गौर गोपालदास
(लेखक इंटरनेशनल मोटिवेशनल स्पीकर हैं उनसे बातचीत के आधार पर ये लेख है)

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