‘पथ वही हैं जहां पैरों से खून निकलता है’

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युद्ध घर को हो, खेत-खलिहान का हो, प्रदेश का हो, देश का हो या फिर संसार को जीतने का इन सबमें अलग चाह रखता है विश्व में कैसे शांति स्थापित हो यह एक अलग प्रकार का युद्ध है। परंतु कई दशक पहले शुरू हुए खाड़ी युद्ध से न जाने संसार को कितनी क्षति हुई है। इसका असर मनुष्य की आर्थिक स्थिति पर पड़ना स्वाभाविक ही है। आज फिर जिस तरह से खाड़ी देश और अमेरिका के बीच तेल का खेल को लेकर युद्ध छिड़ा है वह दुनिया में केवल अशांति ही फैलायेगा, भूखमरी ही लायेगा, आर्थिक स्थिति ही बिगाडे़गा। इसका असर उन तमाम विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था अवश्य डगमायेगी। वैसे भी आर्थिक मंदी का असर पूरी दुनिया में दिखाई दे रहा है और उससे कहीं ज्यादा हमारे देश भारत में और अब रही सही कसर पूरा करने वाला खाड़ी युद्ध क्योंकि भारत एक ऐसा अकेला देश है जो ईरान, इराक से पेट्रोल, डीजल के साथ-साथ कच्चा तेल तथा रसाई गैस का दुनिया का तीसरा बड़ा उपभोक्ता देश है। आज हमारे देश में शायद ही ऐसा कोई घर परिवार हो जिसके पास कम से कम एक टू व्हीलर या गैस कनैक्शन न हो।

युद्ध कोई भी हो वह हमेशा बदहाल ही कर सकता है। इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का नाम किसने नहीं सुना या पढ़ा होगा। वह ही विश्व के एक ऐसा शख्स हुए हैं जिन्होंने जीते जी अपनी मूर्ति इराक में स्थापित करवाई। इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का राजनैतिक पटल का उदय हुआ। इन्होंने इराक में बाथ पार्टी के प्रमुख नेता के रूप में अपना राजनैतिक जीवन शुरू किया। 1968 में एक क्रांति के जरिए अपनी पार्टी को सत्तासीन किया। जनरल अहमद के कार्यकाल में बतौर उपराष्ट्रपति सद्दाम ने सुरक्षा घेरा मजबूत किया और कई आंदोलनों को हिंसा से कुचला। सन 1979 में राष्ट्रपति बने और 2003 के अमेरिकी आक्रमण तक राष्ट्रपति बने रहे। ईरानी क्रांति से उपजे भय और इराकी शियाओं को ईरानी समर्थन के डर से 1980 में ईरान के साथ युद्ध छेड़ दिया। आठ वर्षों तक चले इस बीसवीं सदी के सबसे लंबे और परंपरागत युद्ध को फारस खाड़ी का युद्ध भी कहा जाता है। शुरू में इराक ने बढ़त बनाई किंतु बाद में ईरान ने न केवल अपनी पूरी जमीन वापस ली, बल्कि इराकी जमीन पर भी कब्जा किया। अनुमान के अनुसार इस युद्ध में पांच लाख लोगों की जानें गईं। अंत में संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से एक संधि हुई और ईरान ने कब्जा की हुई जमीन छोड़ी। इस युद्ध में कुवैत और अमेरिका का समर्थन इराक को प्राप्त था। युद्ध के लिए कुवैत ने इराक को विपुल धनराशि उपलब्ध कराई।

युद्ध समाप्त होने के बाद इराक की अर्थव्यवस्था कर्ज में डूब गई। इराक ने कुवैत को कर्ज माफ करने के लिए कहा जिस पर सहमति न हो सकी और इराक ने कुवैत पर हमला कर दिया। दो दिन के भीतर इराक ने पूरे कुवैत पर कब्जा कर लिया और आनन-फानन में कुवैत को इराक का उन्नीसवां प्रांत घोषित कर दिया। यह आक्रमण अंतरराष्ट्रीय जगत को नागवार गुजरा और संयुक्त राष्ट्र संघ से स्वीकृति लेकर अमेरिका के नेतृत्व में 34 देशों की सेना ने इराक को कुवैत से खदेड़ा। यहीं से नींव पड़ी अमेरिका के इराक आक्रमण की। सभ्यता के विकास में इन युद्धों का भी उतना ही योगदान है, जितना अमन का। ये ही युद्ध कई अविष्कारों के कारक बने हैं। स्वयं सद्दाम के शब्दों में- आसान रास्तों की ओर आकर्षित न हों क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए पथ वही हैं जहां पैरों से खून निकलता है।’ सद्दाम अपनी जिद और महत्वाकांक्षा में सैन्य शक्ति का विस्तार करना चाहता था। उसने परमाणु तकनीक हासिल करने की भरपूर कोशिश की। अमेरिका के विरुद्ध उग्रवादियों को समर्थन दिया। अमेरिका ने सद्दाम के परमाणु और रासायनिक हथियारों के खिलाफ दुनिया के देशों को विश्वास में लेकर इराक पर चढ़ाई कर दी। एक लाख से ज्यादा इराकी मारे गए। अरबों डॉलर खर्च हुए। इराक में अमेरिका का एक सैनिक पर सालाना खर्चा 2 करोड़ रुपए था।

इसी से अनुमान लगा सकते हैं अमेरिकी खर्चे का। यह खर्च और इतनी जानों का जाना शायद वाजिब होता यदि इराक की स्थिति पहले से बेहतर होती। यह बात और है कि पश्चिमी देशों द्वारा लगाया परमाणु और रासायनिक हथियारों का आरोप बेबुनियाद निकला ठीक उसी तरह जैसे मीडिया ने सद्दाम के बॉडी डबल की सनसनी दुनिया में फैलाई थी। इराक सद्दाम के वहशी चंगुल से निकल तो गया किंतु धार्मिक और जातीय कट्टरवाद में धंस गया जिस पर सद्दाम ने कड़ा अंकुश लगा रखा था। स्थिति अराजकता की है और तंत्र पूरा भ्रष्ट हो चुका है। अमेरिका अपनी जनता और अंतरराष्ट्रीय दबावों में आकर इराक छोड़कर जा चुका था और आम जनता हिंसा में वैसे ही पिस रही थी जैसे पहले पिस रही थी। युद्ध की विभीषिकाओं से कौन परिचित नहीं? संसार का इतिहास युद्ध व तानाशाही की भयानक और दर्दनाक कहानियों से भरा पढ़ा है, किंतु क्या कभी मनुष्य ने इन कहानियों से सबक लिया है? दुनिया तो वर्चस्व, अहं, सत्ता, शक्ति और धन की लड़ाई का खुला मैदान है। जिनके पास नहीं है उन्हें इनकी चाह है और जिनके पास है उन्हें अधिक की चाह। तो क्या यह मानें कि यदि मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं खत्म हो जाएं तो धरती स्वर्ग हो जाएगी? ऐसा भी नहीं हैं। यदि आदमी की महत्वाकांक्षाएं न हों तो संसार स्थिर और प्रगति शून्य हो जाएगी।

नौ अप्रैल 2003 को इराक में सद्दाम हुसैन के क्रूर शासन का अंत हुआ था तथा इसके साथ ही इराक पर अमेरिकी आक्रमण के दस वर्ष भी पूरे हुए। समय है एक आकलन का कि इस युद्ध से अमेरिका, इराक और संसार ने क्या खोया, क्या पाया? मानव सभ्यता के विकास में इन युद्धों का भी उतना ही योगदान है, जितना अमन का। ये ही युद्ध कई अविष्कारों के कारक बने हैं। स्वयं सद्दाम के शब्दों में ‘आसान रास्तों की ओर आकर्षित न हों क्योंकि जीवन में आगे बढ़ने के लिए पथ वही हैं जहां पैरों से खून निकलता है।’ कामना है कि कंटकाकीर्ण मार्ग पर तो चलें किन्तु उसका अंतिम लक्ष्य शांति, सहजीवन और विकास हो। खाड़ी युद्ध जो प्रथम खाड़ी युद्ध के रूप में भी जाना जाता है। यह युद्ध 2 अगस्त 1990, 28 फरवरी 1991 संयुक्त राज्य के नेतृत्व में 34 राष्ट्रों से संयुक्त राष्ट्र के अधिकृत गठबंधन बल ईराक के खिलाफ छेड़ा गया युद्ध था। इस युद्ध का उद्देश्य 2 अगस्त 1990 को हुए आक्रमण और अनुबंध के बाद इराकी बलों को कुवैत से बाहर निकालना था। अब जब अरब के दो संयंत्रों पर ड्रोन हमले के बाद ईरान और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ गया है। अमेरिका ने हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार ठहराया है। यह युद्ध का संकेत है। अमेरिका के सैन्य अड्डे और विमानवाहक पोत ईरानी मिसाइलों की जद में हैं।

सऊदी अरब के तेल प्लांट पर हुए हमले की जिम्मेदारी ईरान समर्थित हाउती विद्रोहियों ने ली थी। रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर एयरोस्पेस फोर्स के प्रमुख अमीरली हाजीजादेह के हवाले से कहा, हर कोई जानता है कि ईरान के दो हजार किलोमीटर के दायरे में अमेरिकी सैन्य अड्डे और उनके विमानवाहक पोत हैं। इसलिए वे हमारी मिसाइलों की जद में हैं। जब चाहेंगे, उन्हें मार गिराएंगे। तेहरान युद्ध के लिए हमेशा तैयार है।’ इसके पहले अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने सऊदी तेल संयंत्रों पर हमले के लिए सीधे तौर पर ईरान को जिम्मेदार ठहराया था। इराक और अमेरिका के परमाणु करार टूटने से शुरू हुआ तनाव पिछले साल मई में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ 2015 में हुए परमाणु समझौते से अमेरिका के हटने का एलान किया था। इसके बाद उस पर कई सख्त प्रतिबंध थोप दिए थे। तब से दोनों देशों में तनाव गहराता जा रहा है। अमेरिका ने ईरान की ओर से होने वाले किसी भी तरह के हमले से निपटने के लिए पश्चिम एशिया में अपने विमानवाहक पोत और कई युद्धपोत तैनात कर रखे हैं। इस क्षेत्र में उसने अपने सैनिकों की संख्या भी बढ़ा दी है। अमेरिका ने बमवर्षक विमान भी तैनात कर रखे हैं। न जानें तेल का खेल आगे कितनी त्रासदी लाने वाला है जब जब भी ऐसी त्रासदी आई है जिसमें लाखों लोगों को लील लिया तथा विकासशील देशों की आर्थिक स्थिति धराशाही हो गई। आज पूरे विश्व की निगाहें भारत और अमेरिका के रिश्तों पर टिकी है यह हमारे लिये बड़े गौरव की बात हो सकती है। परंतु विदेशी नीति व कूटनीति में बड़ा फर्क होता है वो हम चीन जैसे देश से भलीभांति सीख सकते हैं।

सुदेश वर्मा
ये लेखक के निजी विचार हैं

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