क्या कभी वह दिन भी आ सकता है जब अख़बार बिना पत्रकारों के निकलें और न्यूज चैनल बगैर पत्रकारों के चलें? आज की भयावह स्थिति को देखते हुए यह कोई असंभव बात नहीं लगती। आंशिक रूप से तो अभी भी कई बड़े अखबारों में यही हो रहा है। उनके अलग नाम से रोज निकलने वाले परिशिष्ट में पत्रकार होते ही नहीं हैं। पूरे 12- 16 पेज ब्रांड की टीम खुद निकालती है। यह करीब करीब पेड अख़बार होता है और इसमें पैसा देकर आप कुछ भी छपवा सकते हैं। ज्यादातर प्रकाशन के शहर जैसे दिल्ली या सिटी नाम से आने वाले ये परिशिष्ट मुख्य अख़बार के साथ होते हैं मगर समानान्तर या अलग ही अख़बार होते हैं। यह कितने पापुलर या पृथक पहचान के हो गए हैं इसे बताने के लिए एक उदाहरण देता हूं। पुरानी बात है। बेटा मेरे साथ शताब्दी में सफर कर रहा था। अटेन्डेंट पूछकर अख़बार दे रहा था। टीनएज बेटे ने अंग्रेजी अख़बार के पुलआउट का नाम लेते हुए वह मांगा। मैं हैरान हो गया। मैंने अख़बार का पूरा नाम लेते हुए कहा कि वह तो उसके साथ में ही होगा। बेटे का जवाब था कि मुझे खाली वही चाहिए। मतलब लाइफ स्टाइल, फिल्म, इंटरटेनमेंट, खाने पहनने के परिशिष्ट अब अपनी पृथक सत्ता बना चुके हैं और ये बिना पत्रकार के निकल रहे हैं। इनमें काम करने वाले लोगों को कापी राइटर कहा जाता है। कापी राइटर एक तरह से अदालतों, कलेक्टरी के बाहर बैठे टाइपिस्ट, मुंशी या पिटीशन राइटर। आर्टिस्ट या फोटोग्राफर जो जगह खाली छोड़ेंगे, उसमें जैसे कहेंगे शब्द भर देंगे। बड़े अख़बार ग्रुपों ने इस प्रयोग के सफल होने के बाद इसे टीवी में भी लागू क्या हुआ है। वहां खबरों के बदले डिबेट मुख्य चीज हो गई है। एंकर जिसका पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं है वह मुख्य सूत्रधार बन गए। सारा मजमा उनके इर्द गिर्द लगने लगा।
खबर और पत्रकार को मारने के लिए नई नई नौटंकी ईजाद की गई। एक सबसे बड़े और तेज चैनल ने बलात्कार का नाट्य रूपांतरण दिखाकर पत्रकारिता और नैतिकता की सारी मर्यादाएं खत्म कर दीं। उसके बाद तो चिल्लाना, कलाकारी, गालियां, मारपीट सब शुरू हो गया। चैनल पत्रकार प्रधान से एंकर प्रधान हो गए। तो मुख्य धारा के प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनों मीडिया में वे पत्रकार खत्म हो रहे है जिसके नाम से कभी इम विधा का नाम पत्रकारिता पड़ा था। पत्रकारिता वह जो पत्रकार करे। कभी इसका राजा रिपोर्टर हुआ करता था। जैसे आज भी काफी हद तक अस्पतालों का मुख्य नायक डाक्टर ही होता है वैसे ही कभी रिपोर्टर हुआ करता था। मगर आज अखबारों और चैनलों में सबसे बुरी हालत उसी पत्रकार की, रिपोर्टर की है। कोरोना महामारी के नाम पर बड़े मीडिया संस्थान लगातार पत्रकारों को नौकरी से निकाल रहे हैं। सैंकड़ों पत्रकारों, कैमरामेनों, फोटोग्राफरों की नौकरी जा चुकी है। अख़बार बंद हो रहे हैं। पत्रकारों और मीडियाकर्मियों के बीच भयानक अनिश्चितता और घबराहट का माहौल है। निराशा ने उन्हें आत्महत्या की तरफ धकेल दिया है। इससे पहले नौकरी की वजह से आत्महत्या की घटनाएं कभी नहीं सुनीं थीं। एक बड़े हिन्दी अखबार के हेल्थ रिपोर्टर ने एम्स की चौथी मंजिल से कूदकर आत्महत्या की। एक कैमरामेन ने फांसी लगाई। हाल में एक टीवी चैनल की युवा महिला पत्रकार ने भी आत्महत्या की है। यह तो कुछ उदाहरण मात्र हैं। कई घटनाएं ऐसी हैं कि जिन्हें बताने की भी स्वाभिमान इजाजत नहीं देता। अंदर तक हिला देने वाली है। एक फोटोग्राफर की नौकरी चली गई। बेटे का क्या होगा, उसके बच्चों का क्या होगा? इसी गम और फिक्र में पिताजी चल बसे। हालत ऐसी खराब कि अन्त्येष्टि के लिए पैसे नहीं। सोचिए क्या हुआ होगा? फोटोग्राफर साथी मदद को दौड़े।
ऐसे ही एम्स से कूदकर आत्महत्या करने वाले रिपोर्टर के परिवार के लिए उसके पत्रकार साथियों ने कुछ पैसे इकट्ठा किए। सोचिए वर्किंग जनरलिस्ट कितना कर सकते हैं! यह हालत तब है जब मार्च में प्रधानमंत्री मोदी ने लाकडाउन लगाते हुए कहा था कि नौकरी किसी की नहीं जाना चाहिए। मीडिया ने इसे चलाया तो खूब मगर अमल उल्टा किया। सबसे पहले छंटनी बड़े मीडिया संस्थानों ने ही शुरू की। उसके बाद यह हवा पूरी इंडस्ट्री में फैल गई। माहौल यह बना कि जब बड़ी ठसक रखने वाले पत्रकारों को निकाला जा सकता है तो बाकी कामकाजी वर्ग को क्यों नहीं। पत्रकार की वास्तविक स्थिति चाहे जितनी खराब हो समाज में उसकी एक मजबूत छवि बनी हुई है। किसी से न डरने वाली, खुलकर बोलने वाली। कमजोर की आवाज उठाने वाली। मगर जब उसे नौकरियों से निकालने, वेतन कटौती करने और आत्महत्या करने की खबरें आई तो उद्योग जगत में मैसेज यह गया कि किसी को भी नौकरी से निकालो कोई कुछ नहींकहेगा।आज अर्थव्यवस्था पूरी तरह बैठी हुई है। लेकिन अभी इस लेख का आशय उस पर प्रकाश डालना नहीं है। बात उस पत्रकार और पत्रकारिता की है जो इस समय सबसे खतरनाक संकट के दौर में है। इस समय जिस घटना ने पत्रकारों और अख़बार कर्मियों को एकदम से बहुत डरा दिया वह है देश के एक सबसे बड़े मीडिया संस्थान द्वारा अपने दैनिक टेबलाइड अख़बार को बंद करने की घोषणा। संस्थान आर्थिक रूप से संकट में नहीं है। उल्टे वह अपने पत्रकारों को भरोसा दिलाए हुए था कि दिल्ली में दो बड़े अंग्रेजी अखबारों का मुकाबला करने के लिए वह जल्दी रेगुलर साइज का अख़बार लांच करेगा। उस संस्थान में इतनी ताकत भी थी।
उसके इस टेबलाइड अख़बार की धमक से दोनों बड़े अख़बार ऐसे हिले थे कि उन्होंने अपनी पारंपरिक प्रतिस्पर्धा छोड़कर उस अख़बार का मुकाबला करने के लिए संयुक्त रूप से एक टेबलाइड अख़बार निकाला। इस अख़बार के बंद होने से पत्रकारों में भयानक बैचेनी है। संकेत यह हैं कि बड़े ग्रुप अपने कम मुनाफा देने वाले अखबारों और चैनलों में ताला लगा सकते हैं। ध्यान दें घाटा हो रहा है लेकिन सब बडे संस्थानों के पास पुराना रिर्जव जबरदस्त है। ये संस्थान कम मुनाफा पर फैसले ले रहे है। मतलब अगर सौ रुपए लगाने पर एक ब्रांड पचास रु. दे तो उसे चलाओ मगर जो बीस रु. मुनाफा दे रहा है उसे बंद कर दो। इस तर्क के आधार पर देश के एक सबसे बड़े न्यूजपेपर ग्रुप ने अपनी सारी लोकप्रिय पत्रिकाएं बंद कर दीं थीं। हर पत्रिका का अपने क्षेत्र में एकाधिकार था। मगर सौ रु. में पचास का लाभ देने की थ्योरी में वे पास नहीं हो सकीं। भारत की और खासतौर से हिन्दी की सामाजिक, राजनीतिक चेतना बनाने में इन पत्रिकाओं का बहुत योगदान था। मगर वे सब कम मुनाफे की कसौटी में बंद कर दी गईं थी। उसी कसौटी में मीडिया संस्थानो के फैसले लेना बहुत खतरनाक है। एक झटके से सैंकड़ों पत्रकारों सड़क पर आ जाएंगे।
आश्चर्य और दुःख की बात है कि बड़े मीडिया संस्थान जिन्हें अभी भी सरकारों और दूसरे संसाधनों से बड़ी आर्थिक मदद मिल रही है वे तालाबंदी और छंटनी कर रहे हैं। जबकि छोटे और मध्यम अख़बार विपरीत आर्थिक स्थितियों के बावजूद अभी भी जैसे तैसे प्रकाशन की कोशिश में है।इन लघु एवं मध्यम अखबारों ने साबित कर दिया कि अभी भी लोकतंत्र का चौथा खंबा अगर डटा है तो इन्हीं के संघर्षों की बदौलत! चार महीने की महामारी ने अगर बड़े बड़े मीडिया संस्थानो की हालत खराब कर दी तो सोचिए लंबे समय से जनता की आवाज उठा रहे और सरकारों की कोपभाजन बन रहे छोटे अखबारों की हालत क्या होगी? लेकिन ऐसे कुछ हिम्मती अख़बार निकल रहे हैं। कोरोना, अर्थव्यवस्था, चीन सहित सभी ज्वलंत मुद्दों पर सबसे ज्यादा जागरूकता बना रहे हैं। जिस समय गोदी मीडिया सब कुछ इकतरफा दिखा और बता रही है उसी समय कम संसाधनों से निकलने वाले अख़बारों का सच और तथ्यों को लेकर संघर्ष करना बहुत बड़ी बात है। आज चाहे इनके पास स्याही खरीदने को पैसे कम पड़ जाते हों मगर पत्रकारिता का इतिहास कल स्वर्णिम अक्षरों में इन्हीं का नाम लिखेगा।
शकील अख्तर
(लेखक वरिष्ठ पत्रका हैं ये उनके निजी विचार हैं)