नेताओं के नाम पर पुरस्कार व स्टेडियम हो हीं क्यों ?

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देश के सर्वोच्च खेल रत्न के पुरस्कार का नाम बदलकर इसे हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के नाम पर रखे जाने का मोदी सरकार का फैसला स्वागत योग्य है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि नेताओं के नाम पर किसी पुरस्कार या स्टेडियम का नाम आखिर रखा ही क्यों जाये?

मान भी लें कि नेहरु-गांधी के जमाने से इस गलत परंपरा की शुरुआत हुई थी, तब भी उसे ख़त्म करने की बजाय मौजूदा सरकार तो उसे और भी आगे ले जा रही है, तो फिर सोच में फर्क कहाँ रहा. कांग्रेस की सरकारों ने यदि खिलाड़ियों के योगदान की यादें जिंदा रखने के स्थान पर अपने नेताओं की स्मृतियों को जीवित रखने की गलतियां कीं, तो क्या उन्हीं गलतियों को दोहराकर अपनी श्रेष्ठता साबित की जाएगी. समाज हो या सरकार, वो इतिहास की गलतियों से सबक लेकर उसे सुधारने का काम करते हैं, न कि उन्हें दोहराने का.

सही मायने में सम्मान व्यक्त करने का सबसे बेहतर तरीका तो ये होता कि मोदी सरकार मेजर ध्यानचंद के नाम पर ही कोई और नया पुरस्कार शुरू करने की घोषणा करती, जिसका महत्व वह खेल रत्न पुरस्कार जितना ही बनाये रखती. तब न तो एक दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री की स्मृति को मिटाने की जरुरत पड़ती और न ही विपक्ष को इसमें कोई सियासत नज़र आती.

जाहिर है कि कांग्रेस, शिव सेना समेत अन्य विपक्षी दलों को मेजर ध्यानचंद के नाम पर पुरस्कार रखने पर कोई एतराज नहीं है, उनकी आपत्ति राजीव गांधी का नाम हटाने को लेकर है, लिहाज़ा इसमें उन्हें सियासत की बू नज़र आ रही है. वैसे भी अगर नाम बदलने की शुरुआत ही करनी थी, तो ये तो 2014 में भी की जा सकती थी. इसके लिए आखिर सात साल का इंतज़ार करने की क्या जरुरत थी.

वैसे भी किसी एक परिवार से बने देश के तीन प्रधानमंत्रियों की निशानी ख़त्म करना अगर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की प्राथमिकता में शुमार होता, तो 1998 से 2004 की अवधि में बहुत सारे नाम बदल गए होते. उनके सहयोगियों ने ऐसे सुझाव भी दिये थे लेकिन तब वाजपेयी का एक ही जवाब था- “मैं ऐसा कोई काम नहीं करुंगा जिससे मेरे राजनीतिक विरोधियों को ये अहसास हो कि मैं बदले की भावना वाली राजनीति कर रहा हूं.” लिहाज़ा उन्होंने ऐसे तमाम सुझाव को दरकिनार कर दिया था.

हालांकि अब कांग्रेस को अहसास हो गया है कि आगे और भी नाम बदले जाएंगे, इसलिये पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने आज चुटकी लेते हुए कहा कि “शुरूआत हो ही गई है तो अच्छी शुरुआत कीजिए. हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद के प्रति सम्मान प्रकट करने का कांग्रेस स्वागत करती है. मेजर ध्यानचंद का नाम अगर बीजेपी और पीएम मोदी अपने छोटे राजनीतिक उदेश्यों के लिए नहीं घसीटते तो अच्छा था. फिर भी मेजर ध्यानचंद के नाम पर खेल रत्न पुरस्कार का नाम रखे जाने का हम स्वागत करते हैं. अब हम चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी स्टेडियम और अरुण जेटली स्टेडियम का नाम बदल कर उन्हें भी खिलाड़ियों के नाम पर रखा जाना चाहिए. अब पीटी उषा, सरदार मिल्खा सिंह, मैरी कॉम, सचिन तेंदुलकर, गावस्कर और कपिल देव के नाम से रखिए.” हालांकि बीजेपी का यही कहना है कि नाम बदलने से आखिर किसी का अपमान कैसे हो गया. यह तो हॉकी के एक महान खिलाड़ी के प्रति सम्मान व्यक्त किया गया है.

अब दूसरा पहलू देखिए-41बरस के लंबे इंतजार के बाद ओलंपिक में हमारी हॉकी टीम ने अगर कांस्य पदक न जीता होता, तो शायद कम ही लोग ये जान पाते कि इस मंजि़ल तक पहुंचने में एक मुख्यमंत्री का भी ख़ामोशी भरा अमूल्य योगदान रहा है। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की सरकार ने पिछले तीन साल से भारत की पुरुष व महिला हॉकी टीम को स्पांसर किया हुआ है जो आगे दो साल तक और जारी रहेगा लेकिन एक जमाने में दून स्कूल की हॉकी टीम के गोलकीपर रहे नवीन पटनायक की तारीफ इसलिये की जानी चाहिये कि उन्होंने पिछले तीन साल में इस स्पॉन्सरशिप का न तो कोई ढिंढोरा पीटा और न ही मीडिया में इसका श्रेय लेने की कोई तड़प दिखाई। साल 2018 में जब सहारा कंपनी ने हॉकी टीमों को स्पांसर करना बंद कर दिया,तो हॉकी इंडिया फेडरेशन के सामने संकट खड़ा हो गया।

उसने केंद्र सरकार के आगे गुहार लगाई लेकिन अपनी आदत से मजबूर अफसरशाही ने अड़ंगा लगा दिया। ऐसे में,भारतीय हॉकी टीम के कप्तान रह चुके और अब बीजू जनता दल के राज्यसभा सदस्य दिलीप टिर्की किसी देवदूत के रुप में उभरे। उन्होंने मुख्यमंत्री पटनायक को सुझाव दिया कि हॉकी के पुराने खिलाड़ी होने के नाते यह संकट खत्म करने के लिए अब आपकी सरकार को मदद करनी चाहिए।

एक गोलकीपर रह चुके मुख्यमंत्री के दिलोदिमाग में हॉकी के लिए वही पुराना जज़्बा जाग उठा और उन्होंने एक ही झटके में स्पॉन्सरशिप के लिए हां कर दी। तब 140 करोड़ रुपये में भारत की दोनों हॉकी टीम के लिए पांच साल का करार हुआ,जिसके बाद फिर से हॉकी इंडिया में नई जान आई।

कहना गलत नहीं होगा कि पिछले कुछ सालों में हॉकी के प्रति जितना लगाव व समर्पण ओडिशा में देखने को मिला है,उसने पंजाब को भी पीछे छोड़ दिया है। कहते हैं कि ओडिशा में हॉकी सिर्फ एक खेल नहीं बल्कि जीवन-शैली है,खासकर आदिवासी इलाकों में जहां बच्चे हॉकी की स्टिक पकड़कर ही चलना सीखते हैं। ओडिशा अकेला ऐसा प्रदेश है जिसकी कलिंगा लांसर्स के नाम से अपनी पेशेवर हॉकी टीम है,जो 2017 में हॉकी इंडिया लीग की चैंपियन बनी थी।

टोक्यो ओलिंपिक में इतिहास बनाने वाली हॉकी टीम के कैप्टन मनप्रीत सिंह ने इस ऐतिहासिक सफलता का श्रेय सीएम नवीन पटनायक को देने में कोई कंजूसी नहीं बरती। उन्होंने कहा कि पटनायक के विजन और हौसलाफजाई के बिना यह सपना सच नहीं हो पाता। उन्होंने इस पूरी यात्रा में हमें सपोर्ट किया.जब हर कोई क्रिकेट को सपोर्ट कर रहा था,तब उन्होंने हॉकी को चुना। पूरी टीम की तरफ से उनको शुक्रिया।

नरेन्द्र भल्ला
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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