नए साल में भी छाई रहेगी सियासी धुंध

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अंग्रेजी के जाने-माने साहित्याकर टीयस इलियट ने अपने समय में जो रेखांकित किया था वह आज भी प्रासंगिक है। उनका मानना था कि रचना का कोई भी स्वरूप अपनी मूलभूत परम्परा से अलग होकर जीवंत नहीं रह सकता। इसका सन्दर्भ था वह ब्लैंक वर्स का दौर जिसमें लय की अवहेलना हो रही थी। आंग्ल परम्परा का यहां जिक्र इसलिए कि आयातित विरोध की जमीन पर कुछ लोग अपनी उम्मीदों को पंख देने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें वे लोग शामिल हैं जो अंतर्राष्ट्रीय मुकाम भी बना चुके हैं लेकिन उनका लहजा ऐसा कि सडक़ छाप भी शर्मा जाए। इस जाते हुए साल में जिस मंजर को लोग देखने को विवश हैं उसके नए साल में भी जारी रहने की सम्भावना है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। सीएए यानी नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बड़े सुनियोजित तरीके से सडक़ों पर विरोध चल रहा है। इसमें गौर करने लायक यह भी है कि बीजेपी शासित राज्यों में ही हिंसक प्रदर्शनों के मामले सामने आये हैं। आरोप यह है कि बीजेपी सरकारें आम लोगों के विरोध को कुचल देना चाहती हैं। खासतौर पर यूपी के मामले चर्चा में हैं। विरोध स्वाभाविक है। किसी बात पर सभी सहमत हों ऐसा नहीं होता लेकिन अराजकता फैले इसकी अनुमति सत्ता में कोई हो भला कैसे दे सकता है। हालांकि पहले से चले आ रहे आर्थिक सवाल कम पेचीदे और चुनौतीपूर्ण नहीं हैं। लोग आहत हैं और उस संकट से उबरना चाहते हैं। मोदी सरकार आर्थिक उपायों पर माथापच्ची में लगी हुई है पर कोई राहत के संकेत नहीं हैं।

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी नागरिकता को लेकर चल रहे विरोध से नोटबंदी को जोडक़र अपने इरादे साफ कर दिए हैं। महाराष्ट्र में चौथे नंबर की पार्टी होने के बावजूद सत्ता की भागीदार बनने से कांग्रेस उत्साह में है। हरियाणा में भले ही सत्ता वापसी नहीं हुई लेकिन बेहतर परफॉर्मेंस ने भविष्य के लिए उम्मीद जगाई है। बीजेपी को वहां गैरजाट को सीएम बनाने का फैसला भारी पड़ा है। हालांकि किसी तरह जोड़तोड़ से सत्ता में वापसी हो गयी, पर झारखण्ड ने सत्ता से ही बाहर कर दिया। गैरआदिवासी सीएम रघुवरदास नैया पार नहीं करा पाए। झारखण्ड के नए सीएम हेमेंद्र सोरेन के शपथ ग्रहण समारोह में भी विपक्षी एकता दिखी। हालांकि कर्नाटक और कोलकाता जैसी गर्मजोशी नदारद रही फिर भी बीजेपी के लिए सन्देश जरूर है। अगले साल दिल्ली के बाद बिहार, फिर पश्चिम बंगाल में चुनाव होगा। इसके लिए विपक्ष को संजीवनी निश्चित तौर पर मिली है। यह भी तय है कि पकिस्तान और चीन से रह- रह कर भारत को सैन्य चुनौतियां मिलती रहेंगी। चीन जिस तरह तिब्बत के पास स्थाई सुरंगें बना रहा है, वह हमारी सीमा सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है। इस तरह नए साल में भी सवाल दर सवाल देश के नेतृत्व और विपक्ष को समान रूप से मथेंगे। स्त्री विमर्श चर्चा में रहेगा लेकिन सियासी खांचों में आगे भी बंटा रहेगा। अब पहले बात ऐक्टिविस्टों की जो आंदोलन को दिशाहीनता का पाठ पढ़ा गए। यहां उनमें से एक की चर्चा इसलिए कि उन्हें अपनी एक रचना के लिए प्रतिष्ठित बुकर सम्मान मिल चुका है।

सीएए के बाद एनपीआरको लेकर हुए कैबिनेट के फैसले के बाद उसे भी एनआरसी की भूमिका बताते हुए कटघरे में खड़ा किया गया। बताया गया कि जब कोई घर आकर जानकारी मांगे तो उसे गलत नाम बता देना। पर कथित ऐक्टिविजम के अतिरेक में उन्होंने नाम रंगा-बिल्ला और पता 7 रेस कोर्स बता दिया। क्या खुद के दस्तावेज में वो गलत जानकारी इस्तेमाल करेंगी, शायद नहीं। जानती हैं इससे पासपोर्ट भी जारी नहीं होगा। विरोध की सलाह मर्यादा में रहकर भी दी जा सकती थी। लेकिन उधार की मानसिकता पर पहचान बनाने वालों से भला क्या उम्मीद की जा सकती है। प्रसंगवश एक और सज्जन याद आ गए। उनका मध्ययुगीन इतिहास में बड़ा नाम है। केरल के राज्यपाल को एक कार्यक्रम में बोलने से मना किया कि वो भारतीय सोच और परम्परा के किरदारों का हवाला देना चाह रहे थे। यह जानकारी खुद राज्यपाल के ट्विटर हैंडिल से सार्वजनिक हुआ है। विसंगति यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने वाले विद्वानों का यह हाल है। यही लोग इधर कई बरस से अभिव्यक्ति की रक्षा के लिए अवार्ड वापसी तक की मुहीम चला चुके हैं। तर्क की तो खूबी होती है जो आप बताना चाहते हैं, उसमें सहायक होता है। इसीलिए तर्क भी सापेक्ष कहा गया है। इससे वैचारिक सफर तो जारी रह सकता है लेकि न कोई यह मान के चले कि अमुक निष्कर्ष ही अंतिम है तो वह पूरी बौद्धिक यात्रा और उसके नित नए सन्दर्भों को खारिज कर रहा है। हमारे यहां तो शास्त्रार्थ की परम्परा रही है।

अच्छा नहीं लगा एक प्रतिष्ठित इतिहासकार के व्यवहार को जानकार। जहां तक अर्थव्यवस्था की चुनौती का सवाल है तो वह मौजूदा विरोध का मुख्य स्वर नहीं रहा, इसलिए इन दिनों उसकी चर्चा मात्र सन्दर्भ के तौर पर है। हालांकि पहले की ही तरह देश की आर्थिक समस्या बरकरार है। जीडीपी 4 फीसदी पहुंच गयी है, हालांकि रिजर्व बैंक और वित्तमंत्री को लगता है सेहत सुधर रही है। निवेश कैसे बढ़ेगा, यह सवाल पहले की तरह मौजूद है। शायद यही वजह है कि राहुल गांधी ने सीएए और एनपीआर को नोटबदी पार्ट-2 कहा है। 2016 में नोटबंदी लागू हुई थी तब विपक्ष ने भारी प्रतिरोध किया था लेकिन उसके बाद यूपी में विधानसभा चुनाव में बीजेपी को प्रचंड बगुमत प्राप्त हुआ। राहुल तो खुद एटीएम की लाइन में लगे थे, फिर भी लोगों ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा किया। यह दर्द विपक्ष को आज भी है। अब जब सरकार माने न माने लेकिन जिस तरह असंगठित क्षेत्र टूटा है उसके तार नोटबंदी से जुड़ते हैं यह खुला सच है। यही कारण है कि कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है की मौजूदा विरोध को 2016 में 8 नवम्बर के अप्रत्याशित फैसले से जोडक़र लोगों का साथ आसानी से पाया जा सकता है। इसलिए राहुल के इस नए सियासी मिश्रण को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। कांग्रेस की उम्मीद में अगले साल और इजाफा हो सकता है। दिल्ली का चुनाव है और यहां का अल्पसंख्यक जिस तरह कांग्रेस की तरफ देख रहा है उससे नतीजे जो भी आयें लेक न फायदे में कांग्रेस रहने वाली है, यह हालिया संकेत बताते हैं।

यूपी में इधर कांग्रेस महासचिव की जिस तरह सक्रियता है उसका अंदाजा योगी सरकार के बयानों से जाहिर हो जाता है। दारापुरी के घर उनकी बीमार पत्नी को देखने जाना यूं ही नहीं है। उसका सियासी मतलब साफ है। इसीलिए बीएसपी प्रमुख ने कांग्रेस को उसके पिछले कर्मों की याद दिलाई है। पार्टी को यकीन है की अल्पसंख्यक और दलित साथ आ गए तो सवर्ण खुद- ब-खुद साथ आ जाएगा। यूपी को लेकर कांग्रेस इसीलिए पूरा जोर लगा रही है। प्रियंका के आने से पार्टी कार्यकर्ताओं को लगता है 2022 में सत्ता का स्वाद पाया जा सकता है। बीजेपी भी इसीलिए चौकन्नी है। एसपी प्रमुख की खुद की सुविधाजनक सक्रियता से कांग्रेस के मुकाबले पार्टी की चर्चा कम हो रही है। हालांकि बयानबाजी में उनका कोई सानी नहीं है। उन्होंने एलान किया है कि वह नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) में अपना पंजीकरण नहीं कराएंगे। अखिलेश यादव ने कहा कि बीजेपी यह नहीं तय करेगी कि कौन भारत का नागरिक है और कौन नहीं। उन्होंने कहा कि नौजवानों को रोजगार चाहिए। भूल गए कि एनपीआर सेंसस से पहले की कवायद है। इसी आधार पर जरूरतमंदों को ध्यान में रखकर योजनाएं बनती हैं। हालांकि हाल में देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कह कर सडक़ पर उतरे लोगों का संशय बढ़ा दिया है कि एनपीआर के कुछ हिस्से आगे चलकर इस्तेमाल हो सकते हैं। विपक्ष इसी आशंका को लेकर हमलावर है और कानून मंत्री ने जाने- अनजाने उसमें इजाफा किया है।

प्रमोद कुमार सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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