धार्मिक पहचान का संकट झेल रहे आदिवासी

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देश में एक तरफ जहां 2021 की जनगणना की तैयारियां शुरू हो गयी हैं । वहीं आदिवासी समूदायों के बीच इस जनगणना प्रकिया से अलग धर्म कोड की मांग भी तेज हो गयी है। जानना दिलचस्प है कि आदिवासियों की इस धार्मिक पहचान पर संकट आजाद भारत की सरकारों की देन है। देश में जनगणना का चलन 1871 से शुरू हुआ। हर दस वर्ष पर होने वाली इस जनगणना में 1951 तक आदिवासियों के लिए एक अलग विकल्प था इसके तहत वे ट्राइवल रिलीजन अंकित करवाते थे। मगर 1961 के जनगणना प्रपत्र से यह विकल्प हटा दिया गया है। इसकी जगह अन्य विकल्प दे दिया गया है। अस्सी के दशक में तत्कालीन सांसद कार्तिक उरांव ने लोकसभा में आदिवासियों के लिए अलग आदि धर्म की वकालत की थी

बाद में आदिवासी बुद्धजीवी व साहित्कार रामदयाल मुण्डा ने इस मांग को आगे बढ़ाया । लेकिन किसी भी सरकार ने इन मांगों की तरफ ध्यान नहीं दिया उलटे 2011 की जनगणना में प्रपत्र में 1961 से चला आ रहा अन्य का विकल्प भी हटा दिया गया। दिलचस्प है सारा बदलाव कांग्रेस के शासन काल में हुआ । यह किसके इसारे पर, किस कारण हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। लेकिन यह साफ है कि राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ काफी समय से आदिवासियों को हिन्दू के रूप में पेश करने की कोशिश करता रहा है। आरएसएस का घटक संगठन सेवा भारती आदिवासी बहुल क्षेत्रों में वनवासी कल्याण केंद्र और वनबंधु परिषद के बैनर तले आदिवासियों में हिंदुत्व से जुड़े संस्कार स्थापित करने की मुहिम चलाता रहा है ।

संघ का मानना है कि जनगणना में आदिवासियों द्वारा अपना धर्म अन्य बताए जाने से देश की कुल आबादी में हिंदुओं का हिस्सा 0.7 फीसदी घट गया है। स्वभाविक रूप से वह चाहता है कि आगामी जनगणना में धर्म के कॉलम में आदिवासी हिंदू पर ही निशान लगाएं, ताकि कुल आवादी में हिंदू का प्रतिशत बढ़े। भारत की जनगणना रिपोर्ट 2011 के अनुसार देश में आदिवासियों की संख्या 12 करोड़ है यहां 781 प्रकार के आदिवासी समुदाए निवास करते हैं इनमें 83 अलग-अलग धार्मिक परंपराएं है । जहां संथाल अपने पूजास्थल को जेहाराथान कहते हैं वहीं हो समुदाय के लोग देशाउलि को अपना सर्वेसर्वा मानते हैं।

मगर इन कुछे छोटी मोटी विभिन्नताओं को छोड़ दें तो ये सभी समुदाये प्रकृति के पूजक और पूर्वजों के आराधक है. इनमें से कोई पुरोहित वर्ग को होता है न जाति प्रथा है और न ही पवित्र ग्रथ हैं। विभिन्न इतिहासविदों के मुताबिक भारत भूमि के पहले निवासी वे लोग थे । जो 60 हजार वर्ष पूर्व अन्य महाद्वीपों से यहा पहुंचे थे। लगभग तीन हजार साल पहले जब आर्य भारत में आए और उन्होने यहा के मूल निवासियों को जंगलों और पहाणों में खदेड़ दिया, जो आज आदिवासी कहलाते है। मगर संघ आदिवासियों को मूलत: हिंदू मानता है। ध्यान देने वाली बात है कि आदिवासी हिंदू के अलावा अगर कोई और पहचान हाशिल करते हैं तो जाने अनजाने यह धारणा कमजोर पडती है कि हिंदू भारत के मूल निवासी हैं। आदिवासियों को वनवासी कहना भी इस धारणा को बल देता है इसके मुताबिक वे हिंदू जो वन में रहते है देखना है कि अपनी पहचान सुनिश्चित करने की यह लड़ाई आदिवासी समुदाए कहां तक ले जा पाता है।

(लेखक विशद कुमार वरिष्ठ स्तंभकार है ये उनके निजी विचार हैं)

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