धर्म के आधार पर वर्गीकरण सही नहीं

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केंद्र में दूसरी बार नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की बहस तेज हुई है। चाहे मॉब लिंचिंग के बहाने हो या एनआईए बिल और यूएपीए बिल के बहाने हो, भाजपा नेताओं के बयानों या केंद्र सरकार की योजनाओं के बहाने, किसी न किसी रूप में इस मुद्दे पर बहस चल रही है। एक तरफ यह आरोप है कि अल्पसंख्यकों के साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा बरताव किया जा रहा है और उनके ऊपर अत्याचार हो रहे हैं। तो दूसरी ओर यह भी दावा है कि देश के दो सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं और धीरे-धीरे कई राज्यों व जिलों में हिंदू अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। इस आधार पर भाजपा के कई नेता दो बच्चों की अनिवार्यता बनाने की बात कर रहे हैं। तभी इस बहस के बीच असलियत को समझने और उसके हिसाब से बदलाव की जरूरत है।

संदेह नहीं है कि भारत में धर्म के आधार पर आबादी के वर्गीकरण का सिद्धांत वैज्ञानिक नहीं है। इसका एक कारण तो यह है कि भारत के संविधान में अल्पसंख्यक को परिभाषित नहीं किया गया है। सहज समझदारी से संख्या बल में कम होने वाले को अल्पसंख्यक माना जाता है। तभी भारत में मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध आदि धर्मों को मानने वाले अल्पसंख्यक हैं और हिंदू बहुसंख्यक है। दूसरा कारण यह है कि पूरे देश को एक पैमाना मान कर धर्मों का वर्गीकरण किया गया है जबकि कायदे से यह वर्गीकरण कम से कम राज्य के आधार पर किया जाना चाहिए। इससे राज्यवार अल्पसंख्यक समूहों की पहचान होती और उनके उत्थान व विकास के लिए काम हो पाता।

हैरानी की बात है कि भारत की विविधता और बहुलता को इसकी सबसे बड़ी ताकत बताने वालों ने भी कभी यह जरूरत नहीं समझी कि इस विविधता और बहुलता को बनाए रखने के लिए वर्गीकरण का पैमाना बदला जाए। इसकी कितनी जरूरत है, इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि देश की बहुसंख्यक आबादी यानी हिंदू भारत के सात राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में अल्पसंख्यक है। देश के 29 राज्यों में से एक जम्मू कश्मीर और सात केंद्र शासित प्रदेशों में से एक लक्षद्वीप में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं और पूर्वोत्तर के राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड में ईसाई बहुसंख्यक हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि इन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं तो उनके साथ दोयम दर्जे का बरताव होता है। पर यह भी हकीकत है कि अल्पसंख्यक होने के बावजूद उन्हें अल्पसंख्यक के लिए बनने वाली विशेष योजनाओं का कोई लाभ नहीं मिल पाता है। संविधान का अनुच्छेद 32 अल्पसंख्यकों को जो विशेष अधिकार देता है वह भी उन्हें नहीं मिल पाता है। यह एक विसंगति है, जिसे दूर करने की जरूरत है।

एक तथ्य यह भी है कि देश के 640 जिलों में से 110 जिले ऐसे हैं, जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं। यानी करीब 83 फीसदी जिले हिंदू बहुल हैं। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना का है। इससे पहले यानी 2001 की जनगणना में करीब 86 फीसदी जिले हिंदू बहुल थे और 1991 की जनगणना में 87 फीसदी जिले हिंदू बहुल थे। 20 साल में हिंदू बहुल जिलों की संख्या करीब चार फीसदी कम हो गई।

हिंदू आबाद भी इसी अनुपात में कम होने की प्रक्रिया में है। 1991 की जनगणना में 81.53 फीसदी आबादी हिंदू थी, जो 2011 की जनगणना में घट कर 79.80 हो गई। यानी 20 साल में करीब दो फीसदी की कमी हुई है। हिंदू आबादी और हिंदू बहुल जिलों की संख्या कम होने के कई कारण हैं। नए जिले बनाते समय वैज्ञानिक सोच की कमी एक कारण हैं तो जन्म दर में कमी, पलायन और धर्मांतरण भी इसका कारण हैं। पर ये सारे अलग अलग चर्चा का विषय हो सकते हैं।

फिलहाल इस पर विचार होना चाहिए कि धार्मिक अल्पसंख्यक को कैसे परिभाषित किया जाए? क्या देश के आधार पर वर्गीकरण की मौजूदा प्रणाली को बनाए रखा जाए और इस वजह से राज्यों में बढ़ रही खाई को और बढ़ने दिया जाए या राज्यवार वर्गीकरण किया जाए और राज्यों के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और संवर्धन के वैसे ही उपाय किए जाएं जैसे देश के स्तर पर होता है? इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

अजित द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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