धर्मों के स्लम क्षेत्र कब तक

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जब जनसंख्या सीमा रेखा से आगे बढ़ने लगती है तब गरीब व निर्धन लोग अपने रहने के लिए मजबूरी में महानगरों व नगरों में खाली पड़े स्थानों, फुटपाथों व अन्य लोगों व शहरों में अवस्था व गंदगी फैलाते है। जब यह बस जाते हैं तब आस्था के नाम पर खासी जगह में अपने अपने धर्म के अनुयायी वहां पर मजार, मस्जिद, मंदिर का निर्माण कर देते है। यदि देखें तो यह आस्था के नाम पर उस जगह को हथियाना होता हैं। वैसे तो सब विकास-विकास करते रहते हैं, परन्तु सब से अधिक रोड़ा विकास में यही लोग अटकाते है। विकास में अवरोध बनते धर्म के स्लम को जब हटाने की बात आती है तब ये ही एकजुट होकर उस का विरोध करते हैं। जिस प्रकार आपातकाल में तुर्कमान गेट पर सड़क निर्माण पर मुस्लिमों ने किा था, परन्तु वह तो संजय गांधी था उस के कठोरता पूर्वक अपना कार्य को पूरा किया, पर ऐसा साहस अन्य नेताओं में कहां होता है?

इस के अलावा अब एक और प्रचलन चल गया है मुर्तियां लगवाने का, कोई एक वर्ग अपने माननीय की मूर्ति लगाता है तब दूसरा विरोधी ववाल करने के लिए उस को अंग भंग कर देता है। मायावती ने तो इस में कमाल ही कर दिया उसे न तो पार्कों में अपनी व अपने लोगों की ही मूर्तियों के गांव ही बसा दिये। इस इस देश की कितनी बड़ी बिडम्बना है सकार एक तो जनता को विकास व सुविधाएं दे फिर उसकी चूहों की तरह बढ़ती आबादी का विकास करे जब यह कार्य पूरे हो जाए फिर उनके धर्मों के भगवानों, पीर या अल्लाह के आवास की समस्या को हल करे।

वैसे तो अल्लाह या भगवान अंतर्यामी है उस को घर के अंदर ही मना जा सकता है तब क्यों उनको चौराहों पर, नेताओं की मूर्ति से विकास की जगह को बर्बाद करके समस्या उत्पन्न करते हों। तब इस मामले में अब सरकार को कोई एक सख्त कानून बना देना चाहिए और नेताओं की मूर्ति के चौराहों जैसे स्थान पर बगगद जैसे विशाल वृक्ष लगाने चाहिए जो कम से कम पर्यायावरण को लाभ पहुंचाए नेताओं की मूर्ति से ज्यादा उन पर लिखी पुस्कतें अधिक सार्थक होंगी। परन्तु दुर्भाग्य यह है कोई एक दल यह करेगा तब दूसरा दल उस के वोट के लिए उसे भड़कायेगा तब उस को सख्त कानून के अंतर्गत उसकी नेतागिरी को ही खत्म कर देना चाहिए।

निर्मल
लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार है

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