काले धन ने हमारी संसद को भी अंगूठा दिखा दिया है। कोई यह बताए कि जिनकी जिंदगी ही काले धन पर निर्भर है, वे यह क्यों और कैसे बताएंगे कि देश और विदेशों में काला धन कितना है और उसे कैसे-कैसे छिपाकर रखा गया है। हमारी लोकसभा की स्थायी वित्त समिति ने काले धन का पता करने में बरसों खपा दिए लेकिन उसके हाथ अभी तक कोई ठोस आंकड़ा तक नहीं आया है।
तीन गहन अनुसंधान करने वाली वित्तीय संस्थाओं ने संसदीय समिति की मदद में जमीन-आसमान एक कर दिए लेकिन उनका भी कहना है कि 1980 से 2010 के दौरान भारतीयों ने विदेशों में 15 लाख करोड़ से 35 लाख करोड़ रु. तक काला धन छिपा रखा है। यह धन पैदा हुआ है, निर्माण-कार्यों, खनन, दवा-निर्माण, पान-मसाला, गुटखा, तंबाकू, सट्टा, फिल्म और शिक्षा के क्षेत्रों में।
तीनों संस्थाओं ने अलग-अलग दावे किए हैं। तीनों ने यह भी कहा है कि यह काला धन देश की सकल संपदा (जीडीपी) के सात प्रतिशत से 120 प्रतिशत भी हो सकता है। इन तीनों संस्थाओं को 2011 में डाॅ. मनमोहनसिंह की कांग्रेस सरकार ने यह काम सौंपा था। वास्तव में यह काम तो करना चाहिए था, मोदी सरकार को। क्योंकि 2014 का चुनाव वह इसी नारे पर जीती थी लेकिन कोई भी सरकार काले धन को खत्म कैसे कर सकती है ? यदि काला धन खत्म हो जाए तो हमारे नेताओं की दुकानें कैसे चलेंगी ?
सारे राजनीतिक दलों के दफ्तरों पर ताले ठुक जाएंगे। वर्तमान सरकार को चाहिए था कि उसने नोटबंदी और जीएसटी जो लागू की, उससे काले धन पर कितना काबू पाया गया, वह यह बताती। इस सरकार ने तो बेनामी चुनावी बांड जारी करके काले धन की आवाजाही को और भी सरल बना दिया है। अच्छा तो यह है कि सरकार किसी तरह आयकर को ही खत्म करे ताकि कालेधन की कल्पना ही खत्म हो जाए।
सरकार को जिस धन पर टैक्स नहीं दिया जाता, उसे काला कहने की बजाय रिश्वत, ठगी, ब्लेकमेल, वेश्यावृत्ति, हरामखोरी से कमाए पैसे को काला कहा जाए तो बेहतर होगा। लेकिन सरकार के खर्चे चलाने के लिए वैकल्पिक आमदनी के रास्ते खोजने की कोशिशें क्यों नहीं की जाए ? नागरिकों पर उनकी आय के बजाय व्यय पर टैक्स लगाने की कोई नई व्यवस्था क्यों नहीं बनाई जाए ? यह काम मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…