रामायण में श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला था। अयोध्या में उत्सव मनाया जा रहा था। सभी बहुत खुश थे और विधाता यानी बह्मा जी को धन्यवाद दे रहे थे। आपस में बातचीत कर रहे थे कि अब हमारी मनोकामना पूरी होगी। दूसरी ओर सभी देवताओं को अयोध्या की ये खुशी अच्छी नहीं लग रही थी। सभी देवता माता सरस्वती जी के पास पहुंचे और उनके पैर पकड़कर विनती करने लगे कि आप कुछ ऐसा करें कि राम राज्य को त्याग दें और वन को चले जाएं। रावण तभी मरेगा और हमारा काम सिद्ध होगा, क्योंकि हम सब रावण से परेशान हैं। सरस्वती जी बोलीं कि ये दोष का काम मुझसे क्यों करवा रहे हैं? देवताओं ने कहा कि इस काम से आपको दोष नहीं लगेगा। सभी अपने- अपने भाग्य को भोगते हैं तो राम भी भोगेंगे। आप हमारा काम करिए।
देवी सरस्वती देवताओं की बात मानकर चल तो दीं, लेकिन वे सोच रही थीं कि देवताओं का निवास तो ऊंचा है, लेकिन इनकी बुद्धि ओछी है। ये दूसरों की खुशियां देख नहीं सकते।सरस्वती जी ने मंथरा की बुद्धि फेर दी और राम का राज्याभिषेक रुक गया। यहां सरस्वती जी ने एक टिप्पणी की है कि ऊंचे लोग, ओछी बुद्धि। कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ लोग दूसरों का सुख देख नहीं पाते हैं और इसलिए कुछ न कुछ ऐसा काम कर देते हैं कि दूसरों का काम बिगड़ जाता है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि स्वार्थ का भाव सभी में होता है, लेकिन इसका गलत उपयोग नहीं करना चाहिए। दूसरों की खुशियों में भले ही शामिल न हो सकें, लेकिन दूसरों के दुख का कारण नहीं बनना चाहिए।