राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत की दाद देनी पड़ेगी। लगता है कि देश के सार्वजनिक जीवन में वे ही मर्द हैं, जो ईमान की बात खुलकर कह रहे हैं। उन्होंने अभी फिर कहा है कि देश आरक्षण पर दुबारा विचार करे। उन्होंने कहा है कि आरक्षण के समर्थक और विरोधी एक-दूसरे के प्रति आदर का भाव रखकर इस समस्या पर विचार करें।
स्वयं बाबा साहेब आंबेडकर ने भी कहा था कि यह आरक्षण अनंतकालीन नहीं है। मोहनजी ने लगभग 3 साल पहले कहा था कि आरक्षण की सूची में से किसे हटाया जाए और किसे जोड़ा जाए, इसे सरकार जल्दी तय करे। आरक्षण के आधार पर पुनर्विचार किया जाए। इस महत्वपूर्ण और एतिहासिक कार्य के लिए गैर-राजनीतिक लोगों की एक कमेटी बनाई जाए!
गैर-राजनीतिक लोगों की ही कमेटी क्यों? इसका जवाब मोहनजी क्या देंगे? मैं देता हूं। इसलिए गैर-राजनीतिकों को इस कमेटी में रखा जाए कि नेताओं का ब्रह्म या तो वोट है या नोट है। वह भी थोक में! बाकी सब मिथ्या है। वे कोई ऐसा काम नहीं करेंगे और न ही सोचेंगे, जिससे उनको वोट और नोट प्राप्ति में दूर-दूर तक कोई खतरा हो। यदि वे इतना ही कह दें कि अनुसूचितों और पिछड़ों के मलाईदार तबकों को आरक्षण न दिया जाए तो उन्हें पता है कि ये मलाईदार तबके उनका कितना नुकसान कर सकते हैं।
हमारे राजनीतिक दल, बौद्धिकगण और पत्रकार कितने दब्बू हैं कि वे जातीय आरक्षण के खिलाफ मुंह तक नहीं खोलते। हमारे मार्क्सवादी बंधु भी मुंह पर पट्टी बांधे बैठे हैं। उन्होंने भारत में मार्क्सवाद की कब्र खोद दी है। मार्क्स के ‘वर्ग’ की छाती पर उन्होंने ‘जात’ को सवार कर दिया है। मार्क्स के सिर पर लोहिया को बिठा दिया है। लोहियाजी कहते थे- ‘पिछड़े पावें, सौ में साठ’। उन्होंने उस समय पिछड़ेपन का आधार जाति को बनाया और वर्ग को रद्द किया। उस समय वह ठीक था लेकिन अब मैं कहता हूं कि ‘पिछड़े पावें, सौ में सौ’ याने क्या?
याने जो भी सचमुच पिछड़ा है, वह चाहे किसी भी जाति का है, उसके हर बच्चे को शिक्षा में आरक्षण ही नहीं, विशेष सुविधाएं भी मिलनी चाहिए। याने वंचितों, दलितों और पिछड़ों को सौ प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए। सिर्फ शिक्षा में, नौकरियों में नहीं। इस नई व्यवस्था से जात भी खत्म होगी, रोजगार भी बढ़ेंगे, विषमता भी घटेगी और संपूर्ण राष्ट्र एकात्म होकर आगे बढ़ेगा। लेकिन यह क्रांतिकारी काम करेगा कौन?
मैंने लेख लिख दिया और मोहनजी ने बयान दे दिया, इससे क्या बनेगा? कुछ नहीं। जरुरत है, इस मुद्दे पर जबर्दस्त जन-जागृति की, जन-आंदोलन की, जन-स्वीकृति की। राजनेता तो सिर्फ राज कर सकते हैं। उनके शब्दकोश में नीति नामक शब्द बहुत फीकी स्याही में छपा होता है। यह काम करना होगा- मार्क्स और लोहिया के सच्चे भक्तों को, संघ को, आर्यसमाज को, सर्वोदयियों को और उन साधु-संन्यासियों को जो अपनी आरती उतरवाने में अपना जीवन धन्य मान रहे हैं।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)