दांव पर लगा पूरी दुनिया का भविष्य !

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मंगलवार को अमेरिका में मतदान का आखिरी दिन बीत गया। भारत और अमेरिका के मतदान में यह एक बड़ा फर्क है। भारत में जिस दिन मतदान की तारीख तय की जाती है, उसी दिन वोट डाले जाते हैं। इसके उलट अमेरिका में जिस दिन मतदान की तारीख होती है उस दिन मतदान खत्म होता है। शुरू वह कई दिन पहले हो जाता है। आमतौर पर नवंबर के पहले सोमवार के अगले दिन मतदान होता है और उसके बाद गिनती और नतीजों को हर राज्य की ओर से वैधता देने की लंबी प्रक्रिया चलती है, जो जनवरी के मध्य में जाकर पूरी होती है और तब 20 जनवरी को राष्ट्रपति शपथ लेता है। हालांकि जिस दिन मतदान खत्म होता है उसी दिन रूझानों से नतीजों का अंदाजा हो जाता है।

इस बार तीन नवंबर को मतदान खत्म होगा। तीन नवंबर से पहले ही अमेरिका के नौ करोड़ से ज्यादा मतदाता वोट डाल चुके हैं। इस बार अनुमान लगाया जा रहा है कि पहली बार 15 करोड़ से ज्यादा वोट पड़ेंगें। इसका मतलब है कि आधे से ज्यादा वोट पड़ चुके हैं और बचे हुए लोग तीन नवंबर को वोट डालेंगे। मेल इन बैलेट यानी डाक से वोट डालने की तारीख अलग अलग राज्यों में अलग है। कुछ राज्यों ने तय किया है कि तीन नवंबर तक जो वोट मिल जाएंगे उन्हीं की गिनती होगी तो कुछ राज्यों का नियम है कि तीन नवंबर की तारीख तक डिस्पैच हुआ बैलेट गिना जाएगा, चाहे वह एक हफ्ते के बाद क्यों न मिले। इसका मतलब है कि गिनती की प्रक्रिया लंबी चलेगी। कम से कम दो राज्यों में यह नौ नवंबर तक चलने वाली है।

तीन नवंबर से पहले अमेरिका के लोगों ने दो तरह से मतदान किया। अर्ली वोटिंग के लिए बनाए गए मतदान केंद्रों पर जाकर उन्होंने वोट डाले हैं या डाक से बैलेट भेजा है। भारत से उलट अमेरिका में कोई स्वायत्त केंद्रीय चुनाव आयोग नहीं है। वहां राज्यों की अपनी अपनी व्यवस्था है और मोटे तौर पर लोग वालंटियर करके मतदान केंद्र बनाते हैं, जहां वोटिंग होती है। इस बार कोरोना वायरस की वजह से यह अंदेशा था कि लोग वालंटियर कम करेंगे और कम लोग मतदान केंद्रों पर आएंगे। यह अंदेशा पूरी तरह से सही नहीं हुआ क्योंकि बड़ी संख्या में लोगों ने बैलेट से वोट भेजा है तो उतनी ही बड़ी संख्या में लोग अर्ली वोटिंग के लिए मतदान केंद्रों पर पहुंचे। माना जा रहा है कि अर्ली वोटिंग और मेल इन बैलेट के ज्यादातर वोट राष्ट्रपति ट्रंप के विरोध में हैं। तभी उन्होंने इन वोट्स को संदिग्ध बताना शुरू कर दिया है।

अमेरिका में मतदान की एक और जटिलता है। वहां लोगों के पॉपुलर वोट से राष्ट्रपति नहीं चुना जाता है। पॉपुलर वोट से इलेक्टोरल कॉलेज चुना जाता है। राष्ट्रपति के लिए इलेक्टोरल कॉलेज में कुल 538 वोट हैं। इनमें से 270 जिसके पक्ष में वोट करते हैं वह जीतता है। ध्यान रहे पिछले चुनाव में भी लोकप्रिय वोट में डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन आगे थीं। उनको ट्रंप से ज्यादा वोट मिले थे, लेकिन कम पॉपुलर वोट के बावजूद ट्रंप को इलेक्टोरल कॉलेज के 305 वोट मिल गए थे। इलेक्टोरल कॉलेज की संख्या असल में अमेरिकी कांग्रेस के दोनों सदनों के सदस्यों की संख्या है। जिस राज्य में पॉपुलर वोट, जिसको ज्यादा मिलते हैं वहां के सदस्यों के वोट यानी इलेक्टोरल कॉलेज के वोट उसके पक्ष में चले जाते हैं। इस जटिलता की वजह से ही यह अनुमान लगाया जा रहा है कि नतीजा उलझ सकता है, कानूनी दांवपेंच में फंस सकता है या ट्रंप सीधे सीधे नतीजे को मानने से इनकार कर सकते हैं।

तभी कहा जा रहा है कि अगर डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडेन को राष्ट्रपति बनना है तो उन्हें बड़ी जीत हासिल करनी होगी- पॉपुलर वोट्स में भी और इलेक्टोरल कॉलेज में भी। इसमें मुश्किल यह है कि अगर तीन नवंबर को बाइडेन को स्पष्ट बढ़त नहीं मिलती है तो ट्रंप अपनी जीत का ऐलान कर सकते हैं या कानूनी जटिलताएं पैदा कर सकते हैं। हालांकि अभी तक बाइडेन को बहुत स्पष्ट बढ़त है इसके बावजूद माना जा रहा है कि उनके मेल इन बैलेट के वोट कुछ राज्यों में बाद तक गिने जाएंगे। सो, बाद में भले उनको बढ़त मिले पर पहली गिनती के रूझान से ट्रंप अपनी जीत का ऐलान कर सकते हैं या नतीजे को कानूनी दांवपेंच में उलझा सकते हैं। यह अंदेशा इसलिए भी है क्योंकि एक तरफ ट्रंप अर्ली वोटिंग और मेल इन बैलेट को फर्जी बता रहे हैं तो दूसरी ओर ट्रंप प्रशासन ने सुप्रीम कोर्ट के एक जज के निधन के बाद आनन-फानन में एक रिपब्लिकन जज की नियुक्ति कराई है। 30 दिन के रिकार्ड समय में इसकी प्रक्रिया पूरी की गई और सीनेट की मंजूरी हासिल की गई। इससे सुप्रीम कोर्ट में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत और मजबूत हुआ है।

अमेरिका के लोग इन सारी जटिलताओं को और ट्रंप की मंशा को समझ रहे हैं। उन्होंने इस बात को भी समझा है कि यह सिर्फ उनके देश का राष्ट्रपति चुनने का चुनाव नहीं है, बल्कि अमेरिका की महान लोकतांत्रिक विरासत को बचाने का चुनाव है, अमेरिकी समाज की उदारता, खुलेपन, बहुलता को बचाने का चुनाव है, अमेरिका की प्रगतिशीलता और वैज्ञानिक सोच की बुनियाद को बचाने का चुनाव है और सबसे ऊपर दुनिया को बचाने का चुनाव है। अमेरिका का इस बार का चुनाव जितना अहम अमेरिका के लिए उससे ज्यादा अहम दुनिया के लिए है। अगर ट्रंप दोबारा जीतते हैं तो यह दुनिया की सुरक्षा, आपसी सहमति पर आधारित विश्व व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और भूमडंलीय पारिस्थितिकी सबके के लिए खतरनाक होगा।

अमेरिकी नागरिकों ने इसे समझते हुए मतदान किया है। खबर है कि न्यूयॉर्क में सात डिग्री की ठंड में लोग पांच-पांच घंटे कतार में खड़े रहे और मतदान किया। दुनिया को कोरोना से लड़ने का रास्ता दिखाने वाले न्यूयॉर्क में पहली बार अर्ली वोटिंग हुई है और यह वह शहर है, जिसने 1984 में रीगन के बाद किसी रिपब्लिकन को नहीं चुना है। पिछले चुनाव में न्यूयॉर्क में ट्रंप को महज 19 फीसदी वोट मिले थे। इस बार उन्हें और भी कम वोट मिलेंगे। लोगों ने यह कहते हुए वोट डाला है कि उन्हें अमेरिका को बचाना है। वोट देने के लिए इंतजार में खड़े लोगों ने ट्रंप के पोस्टर की ओर इशारा करके कहा कि ‘यह फासिस्ट व्यक्ति हमारा राष्ट्रपति होने के लायक नहीं है’। लोगों ने कहा कि वे ‘कोरोना के खिलाफ वोट दे रहे हैं और अमेरिकी शासन में घुस आए वायरस के खिलाफ वोट दे रहे हैं’। कड़ाके की ठंड में घंटों इंतजार करके वोट डालने वाले अमेरिकी नागरिकों का गुस्सा उम्मीद बढ़ाने वाला है। फिर भी अमेरिकी नागरिकों से अपील की जा रही है कि वे तीन नवंबर को घरों से निकलें, मास्क-सैनिटाइजर से लैस होकर मतदान केंद्रों पर पहुंचें और हर हाल में मतदान करें। ट्रंप को यह मौका न दें कि वे चुनाव को विवादित बना सकें।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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