दरिंदों का एनकाउंटर

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हैदराबाद में डॉक्टर बिटिया के दरिंदें शुक्रवार सुबह पुलिस मुठभेठ में मार गिराये गये। इस सूचना के सार्वजनिक होते ही देशभर में जश्न का महौल है। महिलाएं, बेटियां और अभिभावक सभी हैदराबाद पुलिस की महिमामंडन में लग गये। सियासत जरूर इस खबर पर या तो बंटी दिखी अथवा सियासी सवाल खड़े करते दिखी। वैसे डॉक्टर बिटिया के माता-पिता भी इस कृत्य को न्याय के रूप में लेते हुए सराहना कर रहे हैं। आमतौर पर सवालों का सामना करने वाली पुलिस लोगों की सराहना का पात्र बन गयी है। ऐसी स्थिति में कुछ सवाल भी पैदा हो रहे हैं, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सक ती। यह सही है कि हमारे देश में न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और दीर्घावधि वाली है कि यदि देर-सबेर न्याय मिले भी तो वो अर्थहीन जैसा हो जाता है। ताजा मामला निर्भया कांड का है, सात साल हो गये उस जघन्य कांड को, उसमें पीडि़त मां-बाप अब भी दर-दर भटक रहे हैं, जिससे बेटी के हत्यारों को फांसी के फंदे तक पहुंचाया जा सके। कानूनी प्रक्रियाओं के पालन और मामले के निस्तारण की रफ्तार इस कदर सुस्त है या फिर दांव-पेंच के फेर में धीमी कर दी जाती है कि न्याय दूर की कौड़ी लगने लगता है। ऐसी स्थिति में बहुत स्वाभाविक है कि जब हैदराबाद जैसा मामला सामने आता है जिसमें पुलिस एनकाउंटर करती है, तब लोगों का गुस्सा खुशी के साथ फूट पड़ता है।

शायद देश के कोने-कोने से जो पुलिस के लिए कसीदे पढऩे और उन्हें चीयरअप करने जैसी तस्वीरें आम हैं, वे यह बताने को पर्याप्त है कि लोगों का मौजूदा न्याय तंत्र पर से भरोसा डिग गया है। यह किसी भी सभ्य समाज के लिए अनुकरणीय अथवा प्रोत्साहित करने लायक नहीं है। यदि इस तरह तत्काल न्याय के प्रति आग्रह बढ़ता है तो फिर एक तरह से यह जंगल का ही कानून कहलाएगा। शायद इसीलिए सियासी शख्सीयतों में भी तत्काल न्याय की तरफ दारी को लेकर राय बंटी हुई है। मायावती, उमा भारती जैसों ने हैदराबाद मुठभेड़ के लिए पुलिस के कृत्य की सराहना की है तो सीताराम येचुरी, पी चिदंबरम और मेनका गांधी ने न्याय के इस तरीके पर सवाल उठाये हैं। किसी भी सभ्य समाज में इस तरह के तौर-तरीके को न्यायसम्मत नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन यह भी सच है कि ऐसे मामलों में भी जब जांच पर जांच और अदालतों में तारीख पर तारीख का सिलसिला शुरू होता है, तब पीडि़त परिवार वाकई टूट जाता है। यह भी एक यथार्थ है। हैदराबाद मामले में मुठभेड़ की न्यायिक जांच के निष्कर्ष तक इंतजार किया जाना चाहिए।

पहले से ही मनगढ़ंत मुठभेड़ बता देना जल्दबाजी होगी। हालांकि जिन दरिंदों की मौत पुलिस की गोली से हुई है, वे इसी के पात्र थे। पहले बलात्कार, फिर जला देने जैसा कृत्य जघन्यतम श्रेणी में आता है। यही वजह रही कि पिछले कुछ दिनों से पूरा देश गुस्से में था। इसीलिए जब मुठभेड़ में दरिंदों के मारे जाने की खबर आयी तो लोगों ने सीधे तौर पर बिना किसी किन्तु-परन्तु के अपनी भावनाओं को व्यक्त किया। इस घटना से देश के सिस्टम को चेतने की जरूरत है। लोगों में मौजूदा तंत्र से इस कदर निराशा व्याप्त है कि न्याय मिलने के तरीके पर तनिक भी विचार-विमर्श को राजी नहीं हैं। समझा जा सकता है कि इस तरह के मोहभंग का आगे चलकर क्या नतीजा होगा जरूरत है फिलहाल जितने जिलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट हैं, वहां एक निश्चित अवधि में ट्रायल चलाकर सजा सुनाई जाये। साथ ही जितने भी कानूनी उपायों को आजमाने के विकल्प उपलब्ध हैं, उसकी भी एक निश्चित अवधि हो ताकि मामले को इरादतन आरोपी लम्बा ना खिंचवा सके। अभियुक्त को भी पूरा अवसर मिले, लेकिन पीडि़त को न्याय की कीमत पर नहीं। सोचिये, निर्भया जैसे मामले में भी स्थिति फैसले को विलम्बित करने की हो तो बाकी मामलों के हश्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, सभी के लिए हैदराबाद कांड और उसकी परिणति एक चेतावनी है।

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