दरिंदगी पर चुभते सवाल

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तकरीबन हर सुबह अखबार के पहले तो कभी भीतर के पन्नों में किसी ना किसी जगह बलात्कार की खबर सुर्खियों में रहती है। समाजिक संगठनों का आक्रोश सडक़ों पर बिखरा है। शासन-प्रशासन अपनी भूमिका पर सवाल ना उठे, इसकी कोशिश में ज्यादा सक्रिय रहते हैं। इस तरह हर घटना के बाद कुछ इसी तरह प्रतिक्रियाओं का दौर जारी रहता है। यहां एक तथ्य और दिलचस्प है कि मामला यदि हाईप्रोफाइल कटेगरी का है तो विरोध लम्बा भी खिंच सकता है। उस पर सियासी रोटियां भी सेंकी जा सकती हैं। वर्ष 2011 में निर्भया कांड को लेकर दिल्ली से लेकर देश के अन्य हिस्सों में भी जिस तरह का कैंडिल मार्च निकला और विरोध प्रदर्शन हुए उसका असर भी हुआ। दुराचार मामले में अत्यंत कठोर कानून बना। यह बात और है कि इतने वर्षों बाद भी निर्भया के हत्यारे-बलात्कारी कैटिपल पनिशमेंट की सजा से कानूनी दांव-पेंच के चलते बचते आ रहे हैं। हालांकि कानून कठिन होने के बाद भी महिलाओं से होने वाले जघन्य अपराधों में कमी के बजाय इजाफा ही होता आया है।

तो यदि क ठोर कानून भी दुराचारी प्रवृत्ति के लोगों में खौफ पैदा कर पाने में नाकाम हो रहे हैं तो फिर अगला रास्ता क्या हो सकता है। यह बड़ा सवाल है। बंगले झांकने से सवाल पीछा नहीं छोड़ेगा और ना ही किसी प्रदर्शनकारी को नियमों का हवाला देकर धकियाने और थाने में घंटों बिठाकर रखने से बात बनेगी। आखिरकार शनिवार को संसद के समीप एक अकेली युवती आहत मन: स्थिति में महिला सुरक्षा के सवाल को लेकर इस उम्मीद में धरने पर बैठी थी कि उसे सवालों के जवाब मिलेंगे। देश के मुखिया तक एक बेटी की प्रतिनिधि पीड़ा पहुंचेगी पर जवाब मिलने तो दूर, उलटे उसे बदसलूकी का सामना करना पड़ा। यह वाकई बहुत चिंताजनक है। पुलिस प्रशासन को लेकर ही क्यों बार-बार सवाल उठते रहते हैं। इस पर विचार किया जाना चाहिए। हैदराबाद में एक डॉक्टर संग हुई दरिंदगी के बाद पुलिस प्रशासन के खौफ और तेलंगाना सरकार के एक मंत्री के बयान पर बहुतों को गुस्सा आया होगा, लेकिन मन ही मन या फिर सोशल मीडिया पर बरस बात आई गई हो गई होगी।

लेकिन दिल्ली की उस लडक़ी ने अपनी चिंता हाथ में तगती लेकर संसद के समीप जाहिर करने की कोशिश की, यही उसके लिए गुनाह हो गया। यह कितना चिंताजनक है कि डिजिटिलीकरण के दौर में ऐसे जघन्य मामलों में अब सजा सुनाए जाने की दर 5-6 फीसदी रह गयी है। फास्ट ट्रैक कोर्ट खोले जाने के बावजूद इतने कानूनी दांव-पेंच हैं कि दोषी मामले को लम्बा खिंचवाने में अक्सर कामयाब रहते हैं। हालांकि कुछ राज्यों में हालात सुधरे हैं। ऐसे मामलों में संवेशनशीलता बरतते हुए दोषी को उसके अंजाम तक पहुंचाया गया है। फिर भी समग्रता में तस्वीर आशाजनक नहीं है। यह चिंता तो है कि बेटी घर से निकली है तो गन्तव्य तक सकुशल पहुंच गई या नहीं। पढऩे जाये या काम पर जाये। मां-बाप और अन्य परिवारजनों को यह फिक्र रहती है। खुद लडक़ी भी इस असुरक्षा की मानसिकता में आगे बढ़ती है तब कभी-कभी कुछ घटनाएं भीतर के सवालों के बिफरने की वजह बन जाती हैं जैसे उस कामकाजी युवती का विरोध। इसलिए ऐसे मामलों में सांत्वना के साथ जवाबदेही की जरूरत होती है।

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