दरअसल हौसला हार गई है कांग्रेस!

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जब न्यूज चैनल नहीं थे। अखबार ही हुआ करते थे तब की बात है। रिपोर्टर की टेबल पर एक युवक धड़ाक से एक फोटो और विज्ञप्ति पटकते हुए बोला भाईसाहब आज तो यह लगानी पड़ेगी! रिपोर्टर ने थोड़े आश्चर्य और ज्यादा गुस्से में खबरों के ढेर से सिर उठाकर ऊपर देखा। कांग्रेस का पुराना जानने वाला कार्यकर्ता था। हमेशा विनय से अनुरोध से बात करने वाला। सर, देख लीजिएगा! भाईसाहब दो लाइन हमारी भी लगा दीजिएगा के अंदाज में बात करने वाला। चेहरे के भाव देखकर वह समझ गया। बोला, सर इंदिरा गांधी जी से मिलकर आ रहे हैं। उसने फोटो उठाते हुए कहा देखिए ना साथ में फोटो खिंचवाया है। आज तो फोटो लगाना पड़ेगा। उस कार्यकर्ता का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर था। इन्दिरा जी से मुलाकात और साथ में फोटो! कांग्रेस के कार्यकर्ता उन दिनों ऐसे ही उत्साह से भरे रहते थे। इंदिराजी या राजीव गांधी से मिलकर जब वे अपने क्षेत्र में जाते थे तो बिल्कुल बदले हुए कार्यकर्ता होते थे। जोश से भरे हुए। एसपी, कलेक्टर, थाना, कचहरी में रात दिन भागदौड़ करते थे।

लोगों की भीड़ उनके साथ जुड़ती थी। यह किस्सा इसलिए याद आया क्योंकि हाल में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सप्ताह में दो दिन मंगल और गुरुवार सुबह 9 बजे से 1 बजे तक कार्यकर्ताओं से मिलने का फैसला किया है। कांग्रेस के हिसाब से यह एक बड़ा फैसला है। कांग्रेस में कार्यकर्ताओं से मिलने की परंपरा राजीव गांधी के बाद से लगभग समाप्त हो गई। कांग्रेस की दुर्दशा के जो बहुत से कारण हैं उनमें से एक कार्यकर्ताओं से दूरी इस लोक सभा चुनाव में खुलकर सामने आ गई। अमेठी की हार और रायबरेली में जीत का अंतर बहुत कम रह जाने से आक्रोशित प्रियंका गांधी ने कड़े शब्दों में कहा कि कुछ कार्यकर्ताओं ने चुनाव में काम नहीं किया। फटकारने वाले लहजे में उन्होंने कहा कि वे पता लगाएंगी कि ऐसे लोग कौन हैं? रायबरेली और अमेठी में तो प्रियंका एक एक कार्यकर्ता को जानती हैं। राजीव जी के समय से वे वहां जा रही हैं। वहां के बारे में उनसे कोई बात छुपी नहीं रहती। मगर समस्या पूरे देश में हैं। कार्यकर्ताओं में कोई उत्साह नहीं है।

प्रेरणा का कोई कारण भी नहीं है जो उनमें उत्साह भर सकें। पार्टी में भ्रम का माहौल है। अध्यक्ष राहुल गांधी अपने इस्तीफे की पेशकश पर अड़े हुए हैं। ऐसी अनिश्चितता के वातावरण में प्रियंका का कार्यकर्ताओं से मिलने का फैसला पार्टी में उम्मीद की एक किरण की तौर पर देखा जा रहा है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जब भी दिल्ली में होते थे तो कार्यकर्ताओं और आम जनता दोनों के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते थे। लेकिन पहले इंदिराजी और फिर राजीव गांधी की नृशंस हत्या के बाद सुरक्षा कारणों से कांग्रेस नेतृत्व का कार्यकर्ताओं और आम लोगों मिलने का सिलसिला थम गया। बीच में ऐसा भी समय आया कि सीपी आफिस ( काग्रेंस अध्यक्ष आफिस) से कांग्रेस पदाधिकारियों के सामान्य नोटों (परिपत्रों) का जवाब आने में भी कई कई दिन लगने लगे। सीपी आफिस जाने वाले कई नोट ऐसे होते हैं जिनमें कई पहलूओं से विचार विमर्श होता है। मगर कुछ ऐसे सामान्य नेचर के होते हैं जिनका जवाब भेजने वाले को भी मालूम होता है। यह यस होकर ही आना है।

लेकिन ऐसे सामान्य नोट भी कई दिन रुकना पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों के बीच भी निराशा का माहौल पैदा करते हैं। कांग्रेस में इसी निराशा के माहौल को तोडऩे की जरूरत है। राजनीति में चाहे कोई पार्टी हो उसके सामने ऐसे मौके आते रहते हैं। 2004 से पहले भी कांग्रेस ऐसे ही हताश के गर्त में डूबी थी। मगर सोनिया गांधी की अनथक मेहनत ने तस्वीर बदल दी। भाजपा तो पहले आम चुनाव से लेकर ही जाने कितनी बार हार और बुरी हार के बीच झूलती रही मगर उसने कभी गिवअप (हतोत्साहित होना, आशा का दामन छोड़ देना) नहीं किया। वाजपेयी जी से ज्यादा चुनाव कौन हारा होगा? एक साथ तीन-तीन सीटों पर चुनाव लडऩा पड़ा। मगर उन्होंने न अपने जोश को और न पार्टी के उत्साह को क भी कमजोर पडऩे दिया। बाद में प्रधानमंत्री बनने की क हानी सबको मालूम है। लेकिन कम लोगों को पता होगा कि लखनऊ से 1952 का पहला लोक सभा चुनाव हारने के बाद 1957 में पार्टी ( जनसंघ) ने उन्हें तीन सीटों लखनऊ , बलरामपुर और मथुरा से चुनाव मैदान में उतारा। जहां मथुरा में उनकी जमानत तक जब्त हो गई थी। मगर बलरामपुर से वाजपेयी जीते। उसके बाद 1962, 67 के लोक सभा चुनाव हारे। यह बताने का उद्देश्य यह है कि राजनीति में हार जीत महत्वपूर्ण नहीं होती है महत्वपूर्ण होता है नेतृत्व का हौसला। आज जो भाजपा तीन सौ से उपर सीटें लाकर सत्ता में बैठी उसे 1984 में दो सीटें मिली थीं यह तो सबको याद है मगर यह कम लोगों को पता है कि पहले तीन लोक सभा चुनावो में भाजपा ( तब जनसंघ) की स्थिति कितनी क मजोर रही थी। लोक सभा में मुख्य विपक्षी दल क कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी।

शकील अख्तर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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