उत्तर पूर्व में भाजपा छोटे-छोटे गठबंधनों के बल पर 25 में से 22 सीटें जीतने की उम्मीद कर रही है, लेकिन सीटीजन संशोधन बिल की वजह से लोग यहां भाजपा से नाराज हैं। किसी लहर का न होना मोदी की चिंता बढ़ा रहा है। इन चुनावों के बारे में एक चीज तो स्पष्ट होती जा रही है कि यह कई राज्यों के चुनावों का जोड़ है।
हिन्दी भाषी राज्यों के बाहर भाजपा का ज्यादा प्रभाव नहीं है। उत्तर पूर्व में भाजपा छोटे-छोटे गठबंधनों के बल पर 25 में से 22 सीटें जीतने की की उम्मीद कर रही है, लेकिन सीटीजन संशोधन बिल की वजह से लोग यहां भाजपा से नाराज हैं। किसी लहर का न होना मोदी की चिंता बढ़ा रहा है। इन चुनावों के बारे में एक चीज तो स्पष्ट होती जा रही है कि यह कई राज्यों के चुनावों का जोड़ है। इनमें स्थानीय मसले काम कर रहे हैं। कोई राष्ट्रीय मुद्दा प्रमुख भूमिका नहीं निभा रहा है। कोई ऐसी लहर या मुद्दा नहीं है जो सभी राज्यों में प्रभावी हो। 2014 में जरूर मोदी समर्थक और कांग्रेस विरोधी लहर थी। इसी वजह से भाजपा ने 11 राज्यों उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और झारखंड की 216 सीटें यानी 90 फीसद सीटें जीती थी। लेकिन इस बार लगता है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और झारखंड में जमीन गंवा दी है।
अगर हम यह कहें कि भाजपा इन राज्यों में अपनी 50 फीसदी सीटें दोबारा जीत लें तो भी उसकी 85 सीटें कम हो सकती हैं। कई आर्थिक कारणों को मिलाकर बनी एंटी-इनकंबेसी और जातियों के गठबंधन ने नई राजनीतिक गति उत्पन्न कर दी है। मोदी इससे निपटने के लिए आतंकवाद के खिलाफ अपनी कार्रवाई को सामने रख रहे हैं, लेकिन जमीन पर इसका खास असर नजर नहीं आ रहा है।
जिस तरह से अमित शाह यूपी में निषाद पार्टी व शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के साथ सूक्ष्म स्तर पर गठजोड़ कर रहे हैं, उससे भी यह साफ हो रहा है। भाजपा की सबसे बड़ी चिंता सपा-बसपा गठजोड़ है। दूसरी और जिस तरह से पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी वाड्रा उच्च जाति के वोटरों को आकर्षित कर रही हैं, उसने भी भाजपा की चिंता बढ़ी हुई है। मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं की नाराजगी से कुछ ब्राह्मण वोटर कांग्रेस के पास लौट सकता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड और दिल्ली में भाजपा 2014 की तुलना में कई सीटें गंवा सकती है।
एमके वेणु
लेखक द वायर के फाउंडिंग एडिटर हैं, ये उनके निजी विचार हैं।