तो कुर्सियां ही ले गए चोर

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चार-छह दिन पहले मेरे यहां जो चोर घुसे, उन्हें तो राजनीति में जाना चाहिए था। मैं तब से उनके करियर पर विचार कर रहा हूं और वही पुराना अफ सोस मुझे रह-रहकर हो रहा है कि इस देश में प्रतिभा को सही मार्गदर्शन नहीं मिलता। विक्रमादित्य की कथाओं में मैंने पढ़ा था कि किसी माहिर चोर को पकडऩे के बाद यदि राजा विक्रम उनकी चतुराई और वीरता से प्रसन्न हो जाते थे तो अपना सेनापति बना लेते थे। अर्थात् सरकार की नौकरी पाने के बाद तो आप अच्छे चोर हो ही सकते हैं। पर अच्छे चोर होने के बाद भी आप सरकारी नौकरी प्राप्त कर सकते हैं, इसकी गुंजाइश उस जमाने में थी। अब न रहे वे विक्रम वीर। अब माधोसिंह-मोहरसिंह को फौज में लेने में कितने कानून आड़े आ जाएंगे। जिस फूलन देवी ने इतनों को पानी पिलाया, उसे हम पानी पिलाने की नौकरी नहीं दे सकते।

हां, तो हुआ यह कि इधर जब कुछ दिनों को मेरा परिवार बाहर था, मेरे यहां चोरी हुई। गर्मी के ये दिन पर्यटन के व्यस्त दिन होते हैं और उसके ही कारण स्थानीय चोरों की व्यस्तता बढ़ जाती है। घर का मालिक और गश्त लगाने वाला हवलदार दोनों ही दर्शनीय स्थानों के दर्शन करने और रिश्तेदारों से मिलने निकल जाते हैं। घर खाली रहते हैं और छोटे- मोटे चारों को माल पर हाथ मारने की सुविधा हो जाती है। वे एक रात आए, बाहुबल से या किसी विकसित टेक्नॉलजी से बरामदे की लोहे की जालियां काट लीं और अंदर आ गए। मैं महसूस करता हूं कि ऐसा करने में थोड़ी कठिनाई आई होगी। वे छरहरे, पतले चोर चोर रहे होंगे। राजनीति या नौकरशाही में जो चोर होते हैं, उनके बदन पर चर्बी अधिक होती है, जो उनके व्यक्तित्व निर्माण में सहायक रहती है।

पर असल चोरी के क्षेत्र में मोटापा व्यवसाय की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता। पुलिस पीछा करे तो ‘रन फॉर फ्रीडम’ के लिए व्यर्थ की चर्बी नहीं होनी चाहिए। वे बरामदे में आए, पर उससे आगे के ताले तोडऩे में कड़ी मेहनत और पक्के इरादे के बावजूद उल्लेखनीय प्रगति न कर सके। अंदर आते तो वे दो घडिय़ां, एक टी.वी., एक मिक्सी, स्टेनलेस स्टील के खाना बनाने के बर्तन, चार पेंटिंग्स, कुछ सजावटी सामान, वाद-विवाद प्रतियोगिता में लडक़ी को प्राप्त चांदी के कप आदि प्राप्त कर सकते थे। कुल मिलाकर उन्हें निराशा ही हाथ लगती। चोरी की वह रात उनके लिए सौभाग्यशाली नहीं थी। कुछ न मिला, समय नष्ट होने लगा तो वे बरामदे में पड़ी चार फोल्डिंग कुर्सियां उठा ले गए। भोपाल में आंगन का लट्टू और खुले में पड़े प्लास्टिक के बर्तन चुराने वाले आते थे।

यहां मेरे गमले चोरी चले जाते है। इस बार कुर्सियां चोरी गई। लगता है, ईश्वर तो मेरे पास कुर्सी रहे, इस कल्पना के ही खिलाफ है। कभी मिली नहीं, मिली तो मैंने छोड़ दी या उसके नाकाबिल निकला और अब कुछ नहीं रहा तो जो थी, सो चोरी चली गई। मैं चोरों से कहता हूं कि कुर्सी पर संतोष कर लो। सब कर लेते हैं। मैंने तो उन्हें माफ कर दिया। इस देश के लोग रोज ही कुर्सी पर बैठ चोरी करने वाले को माफ कर देते हैं तो मैं क्या चार कुर्सी चुराने वालों को माफ नहीं कर सकता। अब कुर्सी मिल गई ना? उस पर आराम से बैठो और सोचो, कहां चोरी करना, कैसे करना? इस तरह तुम्हारा भी शुमार उन लोगों में होने लगेगा, जो अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे यही काम कर रहे हैं। यही बात सोच रहे हैं। मेरी कुर्सियां, जो तुम चुरा ले गए, यदि पसंद न हों तो राजनीति में चले जाओ।

वहां कुर्सियां ही कुर्सियां हैं। कुर्सियों का आरामदेह लंबा सिलसिला है। वहां कुर्सियां सरेआम झपटी जाती हैं, छीनी जाती हैं, मिलती हैं, छूटने पर फिर और मिलती हैं, उत्पन्न की जाती हैं, चुरानी नहीं पड़तीं। वहां तुम जाओगे तो मौसेरे भाइयों का एक व्यापक संसार तुम्हें मिलेगा। वहां भी तुम्हें लोहे की जालियां काटनी होंगी, अंदर के ताले तोडऩे होंगे। पर तब वह देश होगा, मेरा घर नहीं। तुम घुसो तो, निश्चित ही कुर्सियां मिलेंगी।

स्वर्गीय शरद जोशी
(18 अप्रैल, 1988 को प्रकाशित, लेखक देश के जाने-माने व्यंगकार थे)

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