अगली लोकसभा चुनाव के लिए चुनावी जंग ने रफ्तार पकड़ ली है। मतदान का पहला चरण 11 अप्रैल को है। इन्हीं दिनों में नवरात्र भी पड़ रहा है। रही बात सूरज की तो अभी से मई-जून जैसी आग उगल रहा है। इस सबके बीच रैलियों और रोड शो में नेता पसीने बरा रहे हैं और पब्लिक भी एक बार फिर उनसे उम्मीद लगाए रैली स्थलों पर जुट रही है तो रोड शो में उमड़ भी रही है। आम चर्चा में इन दिनों सिर्फ चुनाव है और यह बहुत स्वाभाविक है । इस वक्त वोटरों के रुख से ही अपने पांच साल किस सोच और मिजाज की पार्टी या दलों का समूह सत्ता में रहने वाला है यह तय हो जाएगा। लिहाजा नेताओं के लिए अभी दौड़-धूप जितना जरूरी है उतना ही वोटरों के लिए उनकी समझ के हिसाब से समय भी जरूरी है। जाहिर है इसके लिए नेताओं के इस दौर के वादों की पड़ताल भी आवश्यक है। सारी अपेक्षा चुनाव आयोग से करना भी एक तरह से अपने दायित्वों की अनदेखी है। देश के कोने-कोने में शानदार सम्पर्क साधने के लिए भावनात्मक मुद्दों को कुरेदने की कोशिश भी हो रही है। राष्ट्रवाद और देशभक्तों की अपनी सुविधा के अनुसार अर्थ दिया जा रहा है। आंतरिक और वाह्रय सुरक्षा के सवाल पर कहीं अतिरंजना हो रही है तो कहीं उसे सियासी मसला करार दिया जा रहा है।
नीतियों पर चर्चा कम है बल्कि अपनी सियासी सुविधा के लिहाज से प्रलाप ज्यादा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक नीतिगत नजरिये का अभाव साफ दिखाई दे रहा है। लेकिन दावा है कि उनके पास स्पष्ट नजरिया है। सरकार की तरफ से कहा जाता रहा है कि पालिका और पैरालिसिस की स्थिति अब नहीं है, जबकि पूर्ववर्ती सरकारों में इसको लेकर सवाल उठते रहे हैं। इस मसले पर रैयिलों में, रोड शो में पार्टियों और उनके समर्थकों को मुखह हुए देखा जा सकता है। पिछले हफ्ते रोड शो में कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा का सीधा निशाना मोदी सरकार पर था। वह कह रही थी कि इस सरकार ने सम्प्रदायिकता के नाम पर देश के भीतर लोगों को आपस में बांट दिया है। सौहार्द सिरे से गायह है से वाही सुरक्षा बलों के शोर्य का सियासी लाभ लेने की कोशिश की जा रही है। जो सरकार से सवाल पूछ रहे उसे देशद्रोही साबित करने की कोशिश हो रही है।
पलटवार में भाजपा के नेता भी इस हद तक चले जाते हैं जहां उन्हें देश की मौजूदा परिस्थिति की जड़ में सिर्फ नेहरू नजर आते हैं। आतंकी मसूज अजहर पर जीन के रुख को लेकर देश के पहले प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराते हैं। सियासी चौसर पर किसी को भी मोहरा बनाने की जो नई परम्परा चल पड़ी है इससे भले ही किसी पक्ष को तत्कालिक लाभ मिलता हो पर इसके दूरगामी प्रभाव देश और समाज के हित में नहीं होते है विश्व बिरादगी में भी लोग चटखारे लेते हैं। इस सबके बीच जिन सवालों से वोटरों का वास्ता होता है उसके लिए तो समय ही नहीं बचता। वोटर भी लच्छेदार संबोधनों के सम्मोहन में ऐसे बंध जाते हैं कि बूथ पर उन्हें अपने सवाल याद नहीं रह जाते और इस तरह एक निर्णायक वोट बेकार चला जाता है। यही वजह है कि नेताओं का जोर भारी भरकम प्रचार और रैलियों रोड शो के साथ आयोजन पर रहता है। इन दिनों पार्टियों को दिग्गज उड़नखटोलों से देश के कोने-कोने में खाक छानने को निकल पड़े हैं। उनके पास सपनों की पोटली है जिसे जगह-जगह खोल रहे हैं। अब तय तो वोटर को करना है।