तब हम बहू-बेटियों को भी इज्जत करते थे और अपने से बड़ो की भी, अब सरेआम उतारने से बाज नहीं आते। तब भाईजारे का माहौल था, अब भावनाओं का मखौल है। तब केवल काम की तनख्वाह लेते थे अब काम से ज्यादा आराम की करने की फिराक में रहते हैं। तब घर के पैसे से नेतागिरी होती थी अब नेतागिरी के पैसे से घर भरे जाते हैं।
आजादी के वक्त भारत 1600 करोड़ का साहूकार था। आज 82 लाख करोड़ का कर्जदार है। तब कोई पढ़ा-लिखा खाली नहीं था, आज 23 करोड़ से ज्यादा बेरोजगार हैं। तब पढ़ने वाले नहीं मिलते थे, अब पढ़ने को स्कूलों में दाखिले नहीं मिलते। तब देश में दो लाख से ज्यादा कारखाने थे, अब या तो वो दफ्न हैं या बीमार। तब 700 से ज्यदा चीनी मिलें थी, अब आधी भी नहीं बची। तब 600 से ज्यादा कपड़ा मिलें थी, अब 250 भी नहीं बची। तब गरीबी था पर कोई भूख से नहीं मरता था, अब अमीरी का ढकोसला है और भूख से सूख चुके तन की मौत आम खबर है। तब दिनों में न्याय मिलता था, अब दशकों तक तारीख के सिवा कुछ नहीं मिलता। तब दुश्मन बनकर गोरों ने मारा था, अब अपने ही काले अपनों का ही खून बहाते हैं। तब हम बहू-बेटियों की भी इज्जत करते थे और अपने से बड़ों की भी, अब सरेआम उतारने से बाज नहीं आते। तब भाईचारे का माहौल था, अब भावनाओं का मखौल है। तब केवल काम की तनख्वाह लेते थे अब काम से ज्यादा आराम की खाने की फिराक में रहते हैं। तब घर के पैसे से नेतागिरी होती थी अब नेतागिरी के पैसे से घर भरे जाते हैं। तब हममें देशभक्ति कूट-कूटकर भरी थी अब कड़वा सच यही है कि वो केवल 15 अगस्त व 26 जनवरी पर जेहन के किसी हिस्से में नजर आती है। और भी ना जानें क्या-क्या जो तब व अब के अंतर को परिभाषित करता है। इतिहास से सीखा जाता है, सिखाया नहीं जा सकता, फिर बी जेहन में ये सवाल उठने लाजमी हैं कि आखिर अब से तब भारी कैसे हो सकता है? तरक्की की है लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि किस कीमत पर?
क्या गंणतंत्र की यही मूलभावना थी? अगर थी और हम दुनिया के महानतम देश हैं तो फिर बुजुर्ग हो चला गणतंत्र को वो इतिहास क्यों नहीं रच पाया जो संविधान बनाते वक्त सोचा गया था? हर हाथ को काम, हर पेट को रोटी, हर सिर को छत, हर तन को कपड़ा और हर बच्चे को हम शिक्षा नहीं दे सके तो फिर इसके लिए किसे दोष दिया जाए? आखिर ये सब पूरा करने में कितना वक्त लगेगा? इसके लिए आबादी के बम का रोना रो सकते हैं लेकिन क्या केवल आबादी की वजह से ही बरबादी का आलम सामने आया? क्या राजनीतिक व्यवस्था को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए? कम जहनी राजनीतिक जामत का खामियाजा भोगते इस देश को हर समस्या पर फतह के लिए और कितने बरस लगेंगे? अगर देश गरीब है तो फिर नेता मालामाल कैसे हो सकते हैं? अगर देश गरीब है तो फिर अंबानी, अडानी जैसे नौ कारोबारियों के पास आधे देश जितनी दौलत कैसे हो सकती है? अगर समाजवाद की राह ही इस देश की थीम थी तो फिर अर्थवाद व बाजारवाद की चपेट में ये किसकी वजह से आया? हैरानी की बात तो यही है कि जनता के राज में भी हर कायदा कानून से परे। अगर देश में चपरासी की नौकरी के लिए भी शिक्षा की सीमा तय है तो फिर विधायक व सांसद के लिए क्यों नहीं? अगर फौजी को भी आयकर देना पड़ता है तो फिर इन महानुभावों को क्यों नही? अपनी सुविधा के लिए सारे नियम लचीले और जनता पर लाल-पीले आखिर दोहरा रवैया क्यों? और कब तक? क्या एक बार फिर संविधान में वो सारे तब्दीलियां नहीं होनी चाहिए जिससे लोक ऊपर रहे और भारत दुनिया का सबसे महान देश बने? पर सवाल वही है कि करेगा कौन ? ये मसला ही गौण-सब मौन। चलिए जो हो सो हो, आज तो गणतंत्र पर मुस्कराने में हर्ज ही क्या है?
लेखक
डीपीएस पंवार