तभी पनपेगा उत्तराखंड

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गैरसैंण ने उत्तराखंड के नक्शे पर नए सिरे से दस्तक दी है। राज्यपाल बेबीरानी मौर्य ने 8 जून को इसके ग्रीष्मकालीन राजधानी बनने के विधेयक पर मुहर लगा दी। इसी साल 4 मार्च को गैरसैंण में राज्य विधानसभा के विशेष ग्रीष्मकालीन सत्र के दौरान इस विधेयक को पारित किया गया था। तब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने स्वीकार किया था कि प्रदेश की जनभावना से जुड़ा कोई अन्य मसला इससे बड़ा नहीं है।

गौरतलब है कि उत्तराखंड के साथ झारखंड और छत्तीसगढ़ भी बने थे। तभी साफ था कि रांची और रायपुर उनकी राजधानियां होंगी, लेकिन उत्तराखंड के मामले में फैसला यहां की पहली सरकार पर छोड़ दिया गया। गैरसैंण में राजधानी की नींव का पत्थर 24 अप्रैल 1992 को ही स्थापित कर दिया गया था। 1994 में यूपी की मुलायम सिंह सरकार द्वारा उत्तराखंड के लिए गठित कौशिक समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में गैरसैंण को ही प्रस्तावित राजधानी माना। लेकिन जब राज्य बना तो अंतरिम सरकार खुद देहरादून में बैठी और स्थायी राजधानी के लिए उसने आयोग बैठा दिया।

आज करीब 19 साल बाद सरकार जागी जरूर है, मगर गैरसैंण के भाग जागेंगे या नहीं, लोगों में यह विश्वास नहीं जग रहा। गैरसैंण के कट्टर समर्थकों को लगता है कि यह राजधानी चयन के लिए 2001 में गठित उसी दीक्षित आयोग का नया संस्करण है जो आठ साल तक बैठा रहा और अदालती हस्तक्षेप के बाद जब रिपोर्ट देने की बारी आई तो आनन-फानन गैरसैंण को नकार कर चलता बना। पूर्व विधायक और उत्तराखंड क्रांति दल के युवा नेता पुष्पेन्द्र त्रिपाठी का कहना है कि सरकार गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन नहीं, बल्कि स्थायी राजधानी घोषित करे और तय समय-सीमा में वहां इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जाए। सनद रहे कि सरकार ग्रीष्मकालीन राजधानी के किसी ठोस ब्लूप्रिंट के साथ सामने नहीं आई है। उसके पास अभी तक भराड़ीसैंण में 36 एकड़ भूमि है। यहां

करीब सवा सौ करोड़ की लागत से खड़े किए गए विधानभवन, विधायक आवास और ऑफिसर्स कॉलोनी के दरकते ढांचे हैं। करीब 7000 फीट की ऊंचाई पर ‌स्थित भराड़ीसैंण में अब तक हुए नुमाइशी विधानसभा सत्रों के लिए हमेशा टेंट कॉलोनी खड़ी करनी पड़ी है। वहां मौजूद इंफ्रास्ट्रक्चर इस लायक नहीं है कि आवासीय सुविधा के लिहाज से उसका उपयोग किया जा सके। सवाल है कि ग्रीष्मकालीन राजधानी के नाम पर क्या गैरसैंण बतर्ज शिमला, अंग्रेज बहादुर की ‘छोटी विलायत’ सिद्ध होने वाला है! फिर क्या सरकारी खजाना हमेशा दो-दो राजधानियों का खर्च उठा सकेगा?

हर कोई भलीभांति समझता है कि सरकार को स्थायी तौर पर गैरसैंण में बैठाने से पहले वहां बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए अच्छा-खासा वक्त चाहिए। इसके लिए ग्रीष्मकालीन राजधानी जैसा विचार एक सेतु का काम कर सकता है, बशर्ते सरकार की मंशा साफ हो कि उसे गैरसैंण को ही स्थायी तौर पर राजधानी के रूप में तराशना है। फिलहाल तो मुख्यमंत्री इस सवाल का कोई सीधा जवाब देने को तैयार नहीं हैं कि गैरसैंण में कितने दिन कामकाज होगा और व्यवस्थाएं कैसे चलेंगी? उनका कहना है कि वे ग्रीष्मकालीन राजधानी को हाईटेक सिटी बनाना चाहते हैं। विधानसभा और सचिवालय पूरी तरह ई-सिस्टम से चलेंगे और वे इस सिस्टम को ब्लाक स्तर तक ले जाएंगे।

आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी ने राजधानी के विकेंद्रीकरण का विधेयक पारित कर अमरावती के साथ-साथ विशाखापट्टनम और कुर्नूल को राजधानी का दर्जा दे दिया। विधानसभा सत्र अमरावती में होगा, सरकार विशाखापट्टनम में बैठा करेगी और कुर्नूल में हाईकोर्ट होगा। विकेंद्रीकरण के इस फार्मूले को राज्य के समग्र विकास की अवधारणा से जोड़कर देखा जा रहा है। उत्तराखंड में भी यदि सरकार इस रास्ते आगे बढ़ना चाहती है तो इसे बेहतर संकेत मान सकते हैं।

चारधाम राजमार्ग और कर्णप्रयाग रेल जैसी निर्माणाधीन महत्वाकांक्षी परियोजनाओं ने गैरसैंण की भौगोलिक अहमियत बढ़ा दी है। इससे यह विश्वास पक्का हुआ है कि समृद्ध विकास का रास्ता गैरसैंण से ही निकल सकता है। ऐसा नहीं है कि गैरसैंण को राजधानी बनाने से सबकुछ दुरुस्त हो जाएगा, मगर लोगों के मन में यह बात बैठ चुकी है कि नीति निर्माण में ग्रामीण उत्तराखंड की हिस्सेदारी देहरादून में नहीं, बल्कि गैरसैंण में ही बैठकर सुनिश्चित की जा सकती है।

(लेखक व्योमेश चन्द्र जुगरान वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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