तकनीकी शिक्षा की मातृभाषा में पढ़ाई

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंजीनियरिंग की शिक्षा देश के आठ राज्यों की पांच मातृभाषाओं में कराने का आदेश देकर राजनीति के क्रिकेट की पिच पर गुगली फेंक दी है। इसके जरिये दूसरे दलों की सरकार वाले राज्यों के युवाओं को भाजपा की ओर से साधने का एक कार्य किया गया है। निर्णय ऐसा है कि इन आठ राज्यों में से पांच राज्यों की विपक्षी सरकार विरोध भी करने की हालत में नहीं हैं। विरोध में बोलती हैं या इस निर्णय को गलत बताती हैं तो अपने ही प्रदेश के युवाओं की नाराजगी का सामना करना होगा। न पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसके विरोध में कुछ कहने की हालत में हैं, न महाराष्ट्र की शिवसेना नीत सरकार और उसके नेता। कांग्रेस गठबंधन वाले राज्यों की भी ऐसी ही हालत है।

घोषणा में कहा गया कि अब राजस्थान, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और उत्तराखंड में वहां के इंजीनियरिंग के छात्र अपनी मात्र भाषा हिंदी, मराठी, तमिल, तेलुगू और बंगला में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करेंगे। आठ राज्यों मे तीन उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और कर्नाटक में भाजपा की सरकार है। बाकी पांच राज्यों में विपक्षी दलों की सरकार है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में अगले साल चुनाव होने वाले हैं। घोषणा बहुत अच्छी है। हालांकि इसके अभी जल्दी कोई परिणाम मिलने वाले नहीं हैं। किंतु राजनैतिक लाभ तो मिलेगा ही। संसद में विपक्षी दल खेला होओ, खेला होओ चिल्लाते रह गए और मोदी सरकार ने पांच विपक्षी राज्यों समेत आठ राज्यों के युवाओं को रिझाने के लिए इतना बड़ा खेला कर दिया कि ये सोच भी नहीं सकते थे।

प्रत्येक युवक तकनीकि शिक्षा अपनी भाषा में पढ़ना चाहता है। अपनी मातृभाषा में पढ़ना और समझना उसे सरल रहता है। केंद्र की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने आठ प्रदेश के युवाओं की इसी भावना को समझा और निर्णय लिया। निश्चित है कि केंद्र की भाजपा सरकार को इसके लाभ मिलेंगे। इन प्रदेश के युवाओं को लगेगा कि निर्णय उनके पक्ष में लिया गया है। इसका राजनैतिक लाभ हो सकता है किंतु युवाओं को लाभ कम नुकसान ज्यादा होगा। इन राज्यों के छात्रों के लोकल भाषा में तकनीकि शिक्षा के अध्ययन का लाभ अभी कुछ साल मिलने वाला नहीं है। यह भी निश्चित है कि इससे स्थानीय भाषा को लेकर और विवाद बढ़ेंगे। उत्तराखण्ड के कुंमायूं में कुमायूंनी में पढ़ाने की मांग उठेगी तो गढ़वाल क्षेत्र में गढ़वाली में, बिहार में बिहारी में। अन्य प्रदेशों में भी ऐसी ही मांग उठ सकती है। लगता है कि आगे चल कर मैडिकल की शिक्षा भी स्थानीय भाषा में पढ़ाने के लिए आंदोलन होंगे।

स्थानीय भाषा में पढ़ने वालों के सामने और चुनौती आएंगी। पहली समस्या आएगी कि अभी न अपनी मातृभाषा में पढ़ाने वाले शिक्षक होंगे, न ही पाठ्य पुस्तक। पाठ्य पुस्तक और शिक्षक तैयार होने में छह−सात साल का समय लगेगा। दूसरा उत्तर प्रदेश हो या उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल हो या मध्य प्रदेश, सबको स्थानीय स्तर पर रोजगार देना संभव नहीं होगा। अकेले उत्तर प्रदेश में एक लाख के आसपास इंजीनियर प्रत्येक वर्ष तैयार होकर निकलते हैं। इतनों के लिए उत्तर प्रदेश में प्रतिवर्ष रोजगार पैदा करना असंभव-सा है। अधिकांश आईटी कंपनी कर्नाटक, महाराष्ट्र या तमिलनाडु के बैंगलुरू, मद्रास, मैसूर, पटना, मुंबई आदि स्थान पर ही हैं। हिंदी और बंगाली में पढ़ने वालों को जाना तो इन्हीं प्रदेश में पड़ेगा। यहां आपसे कोई हिंदी में बात भी नहीं करेगा। साथ ही युवकों को नौकरी के लिए विदेश भी जाना होगा, अपने गांव, अपने प्रदेश में तो सब कुछ मिलेगा नहीं।

दूसरी जगहों पर क्या दिक्कत होती है यह आपको एक उदाहरण से समझाते हैं। एक बार हमें पत्रकारों के कार्यक्रम में पांडिचेरी जाना पड़ा। मद्रास से पांडिचेरी जाते समय बस के कंडेक्टर से हम हिंदी में कुछ पूछें तो वह हाथ हिला दे। कहे− आई डांट नो हिंदी। हमारे एक पत्रकार साथी संतोष वर्मा ने उसे हिंदी में मोटी गाली दी। इस पर वह चीखने लगा। हिंदी में कहने लगा− गाली देता है। हिंदी में गाली देता है। हमने कहा− तुम तो हिंदी जानता नहीं फिर कैसे पता लग गया गाली दी। वह बोला− हम हिंदी जानता है। हिंदी का हम विरोध करता है। इसलिए बोलेगा नहीं। ऐसा ही हमारे साथ बैंगलूरू में हुआ। आदित्यगिरी चुनचुन मैडिकल कालेज में देश भर के पत्रकारों का सम्मेलन था। रूकने की व्यवस्थाएं भी मैडिकल कालेज में थीं। हमारे स्वागत और मदद को मैडिकल कालेज के छात्र लगे थे। पर वह हमसे हिंदी में बात नहीं कर रहे थे। हमारे आने-जाने के लिए यहां लगीं कर्नाटक रोडवेज ट्रांसपोर्ट की बस के चालक और परिचालक हमारी समस्या का हल कर रहे थे।

भला हो हिंदी सिनेमा और टीवी सीरियलों का जिसने हिंदी को घर−घर तक पंहुचा दिया, वरना केंद्र सरकार तो हिंदी को राजभाषा बनाकर भी इसके प्रचार−प्रचार के लिए कुछ नहीं कर सकी। ज्यादा से ज्यादा भाषाओं का ज्ञान व्यक्तित्व के विकास के लिए बहुत जरूरी है। इसीलिए उत्तर प्रदेश में कक्षा छह से आठ की शिक्षा में तीन भाषाएं पढ़ाई जाती हैं। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत या उर्दू। इनके पढ़ाने का तात्पर्य ये ही है कि हमें प्रचलित तीनों भाषाओं का प्रारंभिक ज्ञान हो और जरूरत पड़ने पर बोल और समझ सकें।

कहा जा सकता है कि सरकार उक्त निर्णय राजनैतिक लाभ के लिए जितना अच्छा है, इन आठ राज्यों के छात्रों के लिए नहीं। उन्हें अपने भविष्य और ज्ञान वृद्धि के लिए अंग्रेजी का ज्ञान बहुत ही आवश्यक है। वैसे इंटरनेट की दुनिया में दुनिया भर की तकनीकि शिक्षा की नई जानकारी और नए शोध अंग्रेजी में ही मिलेंगे, अपनी मातृभाषा में नहीं।

अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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