डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन : सादा जीवन-उच्च विचार

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भारत के पूर्व राष्ट्रपति, दार्शनिक और शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को पूरे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनका जन्म तमिलनाडु के तिरुतनी ग्राम में एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था। उनके परिवार के आर्थिक हालात इतने बदतर थे कि एक समय उन्होंने अपने परिवार का पेट पालने के लिए अपने मेडल तक बेचने पड़े थे। आज शिक्षक दिवस के मौके पर आइए जानते हैं उनकी जिंदगी से जुड़े कुछ और तथ्य।

केले के पत्ते पर करते थे भोजन :- डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लूनर्थ मिशनरी स्कूल, तिरुपति और वेल्लूर में पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ाई की थी। उनके परिवार के आर्थिक हालात इतने बदतर थे कि केले के पत्तों पर उनका परिवार भोजन करता था। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक एक बार की घटना है कि जब राधाकृष्णन के पास केले के पत्ते खरीदने के पैसे नहीं थे, तब उन्होंने जमीन को साफ किया और जमीन पर ही भोजन कर लिया।

पिता चाहते थे बनें पुजारी :- घर की आर्थिक स्थिति बदतर होने की वजह से डॉ. कृष्णनन के पिता चाहते थे कि वे एक मंदिर में पुजारी बन जाएं। हालांकि उन्होंने ऐसा नहीं किया। वे परिस्थितियों से जूझते रहे और उन्होंने महज 12 साल की उम्र में ही स्वामी विवेकानंद के दर्शन का अध्ययन कर लिया था। इसके बाद भी वे लगातार अध्ययन में जुटे रहे। डॉ. कृष्णनन ने दर्शन शास्त्र से एमए किया और 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में सहायक अध्यापक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने 40 वर्षों तक शिक्षक के रूप में काम किया। वह 1931 से 1936 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद 1936 से 1952 तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर रहे और 1939 से 1948 तक वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर आसीन रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया।

डॉ. राधाकृष्णन करियर के अपने दौर में 17 रुपये कमाते थे। इसी सैलरी से वे अपने परिवार का पालन पोषण करते थे। उनके परिवार में पांच बेटियां और एक बेटा थे। परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने पैसे उधार पर लिए, लेकिन समय पर ब्याज के साथ उन पैसों को वह लौटा नहीं सके, जिसके कारण उन्हें अपने मेडल भी बेचने पड़े थे। इन परिस्थतियों में भी वे अध्यापन में डटे रहे। साल 1954 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें भारत रत्न की उपाधि से सम्मानित किया था। डॉ. राधाकृष्णन को ब्रिटिश शासनकाल में सर की उपाधि भी दी गई थी। 10 वर्षों तक बतौर उपराष्ट्रपति जिम्मेदारी निभाने के बाद 13 मई 1962 को उन्हें देश का दूसरा राष्ट्रपति बनाया गया। इंग्लैंड की सरकार ने उन्हें ऑर्डर ऑफ मेरिट सम्मान से सम्मानित किया।

इसके अलावा 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा विश्व शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। शिकागो विश्वविद्यालय ने डॉ. राधाकृष्णन को तुलनात्मक धर्मशास्त्र पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। वे भारतीय दर्शन शास्त्र परिषद के अध्यक्ष भी रहे। विभिन्न महत्वपूर्ण उपाधियों पर रहते हुए भी उनका सदैव अपने विद्यार्थियों और संपर्क में आए लोगों में राष्ट्रीय चेतना बढ़ाने की ओर रहता था। डॉ. राधाकृष्णन अपने राष्ट्रप्रेम के लिए विख्यात थे, फिर भी अंग्रेजी सरकार ने उन्हें सर की उपाधि से सम्मानित किया क्योंकि वे छल कपट से कोसों दूर थे। अहंकार तो उनमें नाम मात्र भी न था। डॉ. राधाकृष्णन एक महान दार्शनिक, शिक्षाविद और लेखक थे। वे जीवनभर अपने आपको शिक्षक मानते रहे। उन्होंने अपना जन्मदिवस शिक्षकों के लिए समर्पित किया। इसलिए 5 सितंबर यानी आज का दिन सारे भारत में हर साल शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।

दीप्ति सिंह
(लेखिका पत्रकार हैं)

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