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मैं अध्यापक बनना चाहता था, बना और चालीस वर्षों की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हुआ। इस अवधि के दौरान क ई प्रकार के अनुभव हुए। उन्हीं में से दो अनुभव मैं आपके साथ बांटना चाहता हूं। पहली घटना 1997 की है, मेरी पुत्र वधू वीजा लेने अमेरिकी दूतावास गई हुई थी। वह अपना पासपोर्ट घर पर ही (दिल्ली केंट स्थित मेरे तत्कालीन आवास) भूल गई। उसने फ न किया तो मैं उसका पासपोर्ट लेकर टैक्सी से दूतावास पहुंचा। चूंकि मुझे पासपोर्ट देकर तत्काल ही लौटना था अत: वहीं एक कोने में टैक्सी रोक कर पासपोर्ट देने चला गया। इन तीन- चार मिनट के दौरान पुलिस वाले ने गलत स्थान पर गाड़ी पार्क करने के जुर्म में ड्राइवर को अपने साथ ले लिया। तभी मैं भी आ गया और पुलिस वाले के पास पहुंचा। मैंने उसे कहा कि इस ड्राइवर की कोई गलती नहीं है। केवल दो-चार मिनट की ही बात थी इसलिए मैंने ही इसे यहां गाड़ी खड़ी करने के लिए कह दिया था। यदि इस बात के कारण कोई दंड देना है तो मुझे दे दीजिए। पता नहीं, पुलिस वाले को क्या लगा कि उसने मुझसे पूछा-आप क्या काम करते हैं?

मैंने कहा-भाई, यदि मैं कोई बड़ा आदमी होता तो शायद यह नौबत ही नहीं आती। मैं तो यहीं तुम्हारे पास केंद्रीय विद्यालय नं. 1, दिल्ली केंट में अध्यापक हूं। उसने कहा- ठीक है, मास्टर जी जाइए। दूसरी घटना भी दिल्ली केंट की ही है। मुझे अपने पुत्र और पुत्र वधू के साथ दिल्ली केंट से लोहारू (हरियाणा) वाली गाड़ी पकडऩी थी। सवेरे कोई आठ बजे का समय था। सर्दी के दिन। कोई साधन नहीं मिला। अंतत: एक साइकिल रिक्शा मिला। वह तीन व्यक्तियों को बैठाना नहीं चाहता था, पर बहुत आग्रह करने और पांच पए अधिक देने पर वह मान गया। संयोग से कोई एक किलोमीटर जाने पर किर्बीप्लेस के चौराहे पर ही पुलिस वाला मिल गया। उसने रिक्शा रोक लिया। यदि उससे बहस करो तो ट्रेन निकल जाने का खतरा था सो मैंने कहा- मैं तुम्हारे इसी दिल्ली केंट में अध्यापक हूं। अभी तो जाने दो, नहीं तो गाड़ी छूट जाएगी। तीन-चार दिन बाद मैं खुद ही आकर आप से मिल लूँगा। उसने भी ‘जाइए’ कह कर छोड़ दिया। मेरे पास न तो धनबल है, न ही कोई बहुत बड़ा पद फिर भी मेरा अध्यापक होना ही विशेष अधिकार का कारण बना। सभी लोग अपना काम करते हैं और उसके बदले में वेतन भी पाते हैं।

वेतन तो अध्यापक भी पाता है फिर उसके लिए यह अतिरिक्त सम्मान क्यों? शायद अब भी समाज में अध्यापक के काम को पवित्र, आदरणीय और उत्तरदायित्वपूर्ण माना जाता है। यद्यपि समय के साथ इस क्षेत्र में भी एक से एक बढ़ कर दुष्ट और चालाक लोग आ गए हैं। शिक्षा में निजी क्षेत्र का आना बुरी बात नहीं है बशर्ते कि वे इस कार्य की महत्ता को समझें। शिक्षकों का सम्मान करें और आमदनी के अनुपात में उन्हें उचित वेतन भी दें। होस्टल, बस, कम्प्यूटर, ड्रेस और पुस्तकों के बहाने छात्रों का शोषण न करें। सारी नई-पुरानी, अच्छी-बुरी स्थितियों-परिस्थितियों के बावजूद एक सर्वे में 86 फीसदी लोगों ने आज भी अध्यापक को समाज का सर्वाधिक विश्वसनीय व्यक्ति माना है। उन्हें वेतन के अतिरिक्त सम्मान और विश्वास भी मिलता है। इसलिए उनका उत्तरदायित्व भी विशेष प्रकार का और अधिक है। भले ही अध्यापक सारे समाज को नहीं बदल सकता पर अध्ययनरत रहकर, बच्चों के सामने ईमानदारी और निष्पक्षता का उदहारण प्रस्तुत कुछ विद्यार्थियों को तो सकारात्मक दिशा दे ही सक ता है। याद रखिए, बच्चा सुनता कम और देखता अधिक है। इसलिए उसके सामने वाणी से ही नहीं, कर्मों से भी अच्छे बनें। मशाल नहीं तो एक तीली ही सही।

रमेश जोशी
(लेखक वरिष्ठ व्यंगकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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