टकराव से दोनों का नुकसान राजेश बादल

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पिछले चार साल से अन्य वर्गों के चुनिंदा प्रतिनिधियों के अलावा पत्रकारों और संपादकों की पेगासस सॉफ्टवेयर के जरिए जासूसी की लगातार खबरें चिंता में डालती हैं। इस नजरिए से गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट की इस राय का स्वागत किया जाना चाहिए कि अगर जासूसी हुई है तो यह गंभीर आरोप है। अब इस मामले पर मंगलवार को सुनवाई होगी।

एडिटर्स गिल्ड की याचिका

न्यायमूर्ति एन.वी. रमना ने कहा है कि इन याचिकाओं की प्रति केंद्र सरकार को भी दी जानी चाहिए। माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी एडिटर्स गिल्ड की याचिका पर सुनवाई करते हुए की। पत्रकारिता के अलावा देश की सुरक्षा एजेंसियों, परमाणु कार्यक्रम और अंतरिक्ष अभियानों की गोपनीय सूचनाएं यदि इस सॉफ्टवेयर के जरिए परदेस पहुंच रही हैं तो कौन सी सरकार होगी, जो इस पर चुप बैठेगी? इस पर यदि एडिटर्स गिल्ड ने स्वतः संज्ञान लिया है तो इसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। गिल्ड ने याचिका में इस समूचे मामले की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच का अनुरोध किया है। देश के संपादकों की इस सर्वोच्च संस्था ने माननीय न्यायालय को यह भी जानकारी दी है कि सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी ने साफ कहा है कि इसे किसी व्यक्ति या कंपनी को नहीं बेचा जा सकता।

कोई राष्ट्र सरकार ही इसे खरीद सकती है और वह भी अपने देश के हित में ही इसका इस्तेमाल कर सकती है। लेकिन प्रकाशित खबरें बताती हैं कि सॉफ्टवेयर का दुरुपयोग हुआ है। इसका इस्तेमाल व्यक्तियों के खिलाफ किया गया है। इस मोड़ पर संदेह स्वाभाविक है कि यदि यह सरकार ने नहीं किया तो फिर किसने किया है? इस मामले में सरकार की ओर से अभी तक कोई ठोस जवाब नहीं आया है। अवाम को यह जानने का हक है कि भारत ने यह सॉफ्टवेयर खरीदा है या नहीं। खरीदा है तो उसका इस्तेमाल करने वाला मंत्रालय या एजेंसी कौन है? इसे खरीदते समय किए गए अनुबंध की शर्तें क्या हैं? इसके बारे में संबंधित मंत्रालय या विभाग को क्या निर्देश दिए गए हैं? वह आला अफसर अभी तक खामोश क्यों है, जिसके निर्देश पर यह जासूसी की जा रही है?

सरकार नहीं तो वह कौन है?

एक बारगी यह मान भी लिया जाए कि भारत सरकार इसमें शामिल नहीं है, तो फिर मामला और भी गंभीर हो जाता है कि आखिर इसमें किसका स्वार्थ है और उसके हाथ यह लगा कैसे? यदि इसमें इजरायल अथवा किसी अन्य देश का हाथ है तो मान लीजिए कि हिन्दुस्तान में अब कोई भी तंत्र सुरक्षित नहीं बचा है। माननीय सुप्रीम कोर्ट से यह सुनिश्चित करने का अनुरोध स्वाभाविक और प्राकृतिक है कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अभिव्यक्ति को कैसे बचाया जाए। हम जानते हैं कि कमोबेश प्रत्येक निर्वाचित सरकार अपनी आलोचना के सुरों को बर्दाश्त नहीं करती। मगर जिम्मेदार लोकतंत्र का तकाजा यही है कि सरकार को यह बताने के लिए मजबूर कर दिया जाए कि उसके नाम से जासूसी का यह कुकृत्य किसने किया। यह कोई बादशाही हुकूमत नहीं है कि जब भी जो भी जी में आए, फरमान जारी कर दिया जाए।

नुकसान सभी पक्षों को होगा

माननीय सर्वोच्च न्यायालय से इस प्रसंग में दिशा निर्देश जारी करने की अपेक्षा भी अनुचित नहीं है। उसके दिशा निर्देश पत्रकारिता को संरक्षण देने वाले होंगे। इतना ही नहीं, नए आईटी अधिनियम 2000 के उन प्रावधानों का भी पुनरीक्षण आवश्यक है कि बुनियादी तौर पर वे कहीं असंवैधानिक तो नहीं हैं? कुल मिलाकर इस मामले में सरकार की भूमिका साबित होती है तो भी यह बेहद खतरनाक है और अगर सरकार पाक साफ है तो भी यह अत्यंत गंभीर चेतावनी है। जरूरी है कि पत्रकारिता अपना धर्म निभाए और सरकार अपना कर्तव्य करे। टकराव की स्थिति में जितना नुकसान पत्रकारिता का होगा, उससे अधिक सरकार का होगा। यह बात समझनी होगी मिस्टर मीडिया!

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