एक प्रचलित लोक कथा के अनुसार पुराने समय में एक संत अपने दो शिष्यों के साथ आश्रम में रहते थे। संत बहुत ही विद्वान थे, दूर-दूर से लोग अपनी परेशानियां लेकर उनके पास आते थे और वे उनका सही समाधान बता देते थे। इसी वजह से क्षेत्र में वे काफी प्रसिद्ध थे। जब उनके शिष्यों की शिक्षा पूरी हो गई तो संत ने शिष्यों को एक -एक डिब्बे में गेहूं भरकर दिए। संत ने शिष्यों से कहा कि मैं अब एक साल के लिए लंबी धार्मिक यात्रा पर जा रहा हूं। एक साल बाद वापस आऊंगा तब तुम दोनों ये गेहूं मुझे वापस कर देना। ध्यान रखना गेहूं खराब नहीं होना चाहिए। दोनों शिष्यों ने गुरु से डिब्बे ले लिए और संत यात्रा पर निकल गए।
अगले दिन एक शिष्य में वह डिब्बा मंदिर में रख दिया और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरे शिष्य ने डिब्बे से गेहूं निकाले और अपने खेत में उगा दिए। कुछ समय बाद एक डिब्बे गेहूं की फसल तैयार हो गई। अब दूसरे शिष्य के पास बहुत सारे गेहूं हो गए थे। एक साल पूरा होने के बाद संत आश्रम में आए और उन्होंने शिष्यों से गेहूं के डिब्बे मांगे।
पहले शिष्य ने डिब्बा देते हुए कहा कि गुरु जी मैंने आपकी अमानत की बहुत अच्छी संभाल कर रखी है। मैंने रोज इसकी पूजा की है। गुरु ने डिब्बा खोल के देखा तो गेहूं खराब हो चुके थे। उसमें कीड़े लग गए थे। ये देखकर शिष्य शर्मिंदा हो गया, क्योंकि गुरु ने कहा था कि गेहूं खराब नहीं होना चाहिए।
दूसरा शिष्य एक थैला लेकर आया और संत के सामने रखकर बोला कि गुरु जी ये रही आपकी अमानत। गेहूं से भरा थैला देखकर संत बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि पुत्र तुम मेरी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हो। मैंने तुम्हें जो भी ज्ञान दिया है, तुमने उसे अपने जीवन में उतार लिया है और मेरे दिए ज्ञान का सही उपयोग किया है। इसी वजह से तुम्हें गेहूं को संभालने में सफलता मिल गई है।
संत ने दोनों शिष्यों को समझाया कि जब तक हम अपने ज्ञान को डिब्बे में बंद गेहूं की तरह रखेंगे तब तक उससे कोई लाभ नहीं मिलेगा। ज्ञान को अपने जीवन में उतारना चाहिए। दूसरों के साथ बांटना चाहिए, तभी ज्ञान लगातार बढ़ता है और उसका लाभ भी मिलता है।