जानवरों के नाखून भी नहीं बचेंगे एक दिन

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पिछले एक दशक में पानी, हवा और जमीन पर रहने वाले पशु-पक्षियों की लगभग 500 प्रजातियां पृथ्वी से गायब हो चुकी हैं। प्राकृतिक तरीके से इतने जानवरों का अस्तित्व खत्म होने में दस हजार साल लगते हैं। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वक्त रहते इनकी सुरक्षा और संरक्षण के उपाय न हुए, तो आने वाले 20 सालों में पानी और जमीन पर रहने वाले 500 और जानवरों का नामोनिशान मिट जाएगा। पृथ्वी का इकोसिस्टम बनाए रखने के लिए शेर से लेकर समुद्र में तैरने वाली छोटी सी मछली तक, सबकी भूमिका होती है। पानी की सफाई, फसलों के पोलिनेशन और बीमारियों की रोकथाम में हर पशु-पक्षी का अहम रोल है। आज दुनिया भर में जानवरों की कई प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं। क्रॉस रिवर गोरिल्ला 200 से 300 ही बचे हैं, तो विशाल माउंटेन गोरिल्ला 900 और अमूर लेपर्ड महज 70 ही रह गए हैं। समुद्री कछुए की 90 फीसदी आबादी खत्म हो चुकी है तो सुमात्रन हाथी 2000 से भी कम बचे हैं। हिरण से मिलताजुलता जानवर साओला खत्म हो रहा है तो वैयूटा मैमल मछली भी खात्मे के कगार पर है।

कुछ समय पहले ‘यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन’ में तेजी से नष्ट होते जंगलों को बचाने के लिए चर्चा हुई थी और इसमें भारत को जंगलों के नष्ट होने से इसमें रहने वाले कई वन्य जीवों के गायब होने के बारे में चेताया गया था। भारत में तेजी से होती जंगलों की कटाई के चलते लगभग 10 वन्य जीव प्रजातियां खात्मे की ओर हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय प्रजातियां बंगाल टाइगर, एशियन लॉयन, एक सींग वाला गैंडा, ब्लैकबक, रेड पांडा, स्नो लेपर्ड आदि हैं। चीते के अलावा गुलाबी सिर वाली बतख गायब हो चुकी है और ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, जो एक बड़ी चिडिय़ा है, बिल्कुल खत्म होने की स्थिति में है। पहले ज्वालामुखी के फटने, तारों के टकराने, भयंकर सर्द-गर्म क्या बारिश के चलते जानवर मरते थे, मगर विशेषज्ञों की मानें तो अब पशु-पक्षियों के विलुप्त होने के पीछे सिर्फ मानव का हाथ है।

जंगलों, पहाड़ों और नदियों से लगातार होती छेड़छाड़ जानवरों से न केवल उनका घर छीन रही है, बल्कि इससे जो आपदाएं आती हैं, उसमें भी काफी पशु पक्षी मारे जा रहे हैं। हर साल आने वाली बाढ़, बीमारियां, जल और वायु प्रदूषण, पशु-पक्षियों के अवैध शिकार जैसी ढेरों वजहें सबके सामने हैं। पिछले दिनों असम में आई बाढ़ ने काजीरंगा पार्क में रहने वाले लगभग सवा सौ से अधिक जानवरों की जान ले ली। इनमें नौ गैंडे शामिल हैं। काजीरंगा पार्क में लगभग 2400 गैंडे और 121 टाइगर्स रहते हैं। पिछले साल भी बाढ़ ने यहां लगभग 200 जानवरों की बलि ली थी, जिनमें 18 गैंडे थे। सड़क और रेल लाइनें अलग जानवरों का काल बन चुकी हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2016-2017 और 2018 में सड़क और ट्रेन दुर्घटनाओं में मरने वाले शेरों की संख्या 13 थी, तो 11 टाइगरों की असमय मौत इन्हीं सड़कों पर हुई। ट्रेन से मरने वाले जानवरों की संख्या तो और भी भयावह है।

रेल मंत्री ने संसद में बताया था कि जनवरी वर्ष 2016 से जून वर्ष 2019 तक 35,732 जानवर ट्रेन की पटरियों पर अपनी जान गंवा चुके हैं। वहीं वर्ष 2016 से 2018 के बीच रेल का शिकार होकर 49 हाथी मर गए। सबसे ज्यादा दुखद और शर्मनाक तो यह है कि सरकार के पास बाढ़, बीमारी, सड़क-रेल दुर्घटनाओं से मरने वाले पशु-पक्षियों का कोई पुख्ता आंकड़ा ही नहीं है। इससे अंदाजा लगता है कि प्रकृति और जानवरों के साथ छेड़छाड़ के कितने भयंकर परिणाम सामने आ रहे हैं। पशु प्रेमी तो अब खुलकर बोलते हैं कि पशु-पक्षियों की मौत के सरकारी आंकड़े सिर्फ दिखावा हैं, मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। यह पूरी तरह से सरकारी असंवेदनशीलता की हॉरर फिल्म है। देश में और विश्वभर में लुप्त हो चुकी पशुपक्षियों की प्रजातियों की लिस्ट बहुत लंबी है। इन्हें बचाने की जिमेदारी अकेले सरकार की नहीं, बल्कि सभी की है। अभी भी वक्त है कि हम और गलतियां न करें।

अनु जैन रोहतगी
(लेखिका स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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