चौथे स्तम्भ की चिंता

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कहावत है एक मछली पूरे तलाब को गंदा कर देती है पर यहां तो ऐसी मछलियां बेशुमार हैं। ऐसे अंदाज लगाया जा सकता है कि हालात कितने बदतर हो चले हैं। यह परिदृश्य चौथे स्तम्भ का हो, तब चिंता और गहरी हो जाती है। किसी भी लोक तांत्रिक देश में चौथा स्तम्भ इसीलिए सर्वस्वीकृत और विश्वसनीय माना गया है कि इसके जरिए शासन-प्रशासन तथा जनता के बीच संवाद का सेतु स्थापित होता है। किसी भी स्तर पर अनियमितता या ढिलाई दिखे तो लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ उम्मीद जताता है। पर जब यह स्तम्भ अपात्रों का माध्यम बनता दिखाई दे तो जरूरी है इसके विरोध में इसी समाज से लोग मुखर हों। जो पत्रकारीय परिदृश्य हैं, उसमें मुखरता ही एक मात्र विकल्प है। वैसे कथित पत्रकारों की चर्चा नई नहीं है। पर अब इसी के साथ एक स्थिति यह भी सामने है कि ऐसे ही कथित पत्रकारों को कुछ मीडिया संस्थानों की तरफ से संरक्षण भी प्राप्त होता है।

यही वजह है कि इस मीडिया जगत के भीतर दो किस्म के फर्जीवाड़े फल-फूल रहे हैं। जो वाकई कथित अथवा स्वयंभू हैं, साथ में पूरी तरह अपात्र भी। उन पर रोक लगाने का कोई ना कोई इंतजाम वक्त रहते हो ही जाना चाहिए। लेकिन अच्छा हो इस तरह की जुगत मीडिया के भीतर से ही सामने आनी चाहिए। इसीलिए इसको स्वायत्ता यानी सेल्फ रेगुलेटेड या फिर कहें कि स्वानुशासित माना जाता रहा है। इसलिए और कि लोकतंत्र के अन्य स्तम्भों की मदद या प्रत्यक्ष भूमिका से चौथे स्तम्भ का मर्म भी प्रभावित हो सकता है। इससे पहले से चली आ रही गिरावट के साथ ही एक नया संकट खड़ा हो सकता है। लोक तांत्रिक समाज में चौथे स्तम्भ की भूमिका तभी तक प्रासंगिक है जब तक उसकी स्वायत्तता अक्षुण्ण है। इसका मतलब साफ है कि महती जिम्मेदारी आखिरकार मीडिया संस्थानों के प्रमुखों की है। नाते-रिश्तेदारी से इतर योग्यता के आधार पर पारदर्शी चयन प्रक्रिया हो तो वस्तुस्थिति बदल सकती है।

अब इसका समग्र स्वरूप क्या हो, यह गंभीर विमर्श की मांग करता है। यह वाकई चिंताजनक है। प्रेस कौंसिल और नेशनल ब्राडकास्टिंग एथारिटी के बाद भी ब्लैक मेलिंग के मामले सामने आ ही जाते हैं। अभी पिछले महीनों में ऐसे ही उत्तर प्रदेश में भी फर्जीवाड़ा सामने आया था। जिसमें एक समाचार पोर्टल चलाने वालों पर ब्लैक मेलिंग को लेकर शिकंजा कसा था। कई जेल भी भेजे गये। वे लोग कुछ अफसरों को ब्लैक मेल कर रहे थे। पीडि़त अफसरों के सामने आने पर मामले का खुलासा हुआ। इसी तरह मध्य प्रदेश में हनी ट्रैप ने भी सभी का ध्यान खींचा है। जिस तरह इस खेल में कतिपय मीडिया संस्थानों और पत्रकारों के नाम उछल रहे हैं, उससे पूरे पत्रकारिता जगत की गरिमा लांछित हो रही है। मौजूदा दौर में नेता अफसर और पत्रकारों के जिस गठजोड़ की तरफ यह घटना संकेत करती है, उसके फलादेश का अंदाजा लगाया जा सकता है। मीडिया को विद्रुपता से बचाने के लिए इससे जुड़े सभी लोगों को वक्त रहते पहल करनी होगी, ताकि छीज रही विश्वसनीयता को बहाल किया जा सके ।

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