चुनाव में जाति कार्ड

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सीतापुर, हरदोई और कन्नौज की रैलियों में जाति के सवाल को लेकर मायावती, अखिलेश और कांग्रेस पर जमकर निशाना साधा। दरअसल, हाल ही में खासतौर पर महागठबंधन की रैलियों में मोदी के पिछड़ी जाति का होने पर बसपा नेत्री मायावती ने तंज कसते हुए कहा था कि वे असली नहीं नकली पिछड़े हैं। मुलायम को असली पिछड़ा बताया था। हालांकि 2019 में भी उनके पिछड़ी जाति का होने को लेकर विपक्ष ने सवाल उठाया था। अब इसीलिए मोदी खुद को अति पिछड़ा बताते हुए देश को अगड़ा बनाने की बात कर रहे हैं। जाति पर उनका फोकस नीतिगत है। यूपी की सियासत में जाति की बड़ी महिमा है। जाति के नाम पर प्रतिनिधि चेहरों की एक बड़ी जमात है। बीस-बाईस साल जातीय आधार पर सपा-बसपा जैसी क्षेत्रीय ताकतें यूपी को नेतृत्व प्रदान करने के साथ ही देश की राजनीति पर खासा प्रभाव डालती रही हैं।

इन दलों की अंक गणितीय ताकत का अंदाजा लगातार तस्वीर यह उभरी कि सपा-बसपा का मिलाप 2014 में मोदी की भाजपा को मिली 71 सीटों पर इस बार भारी उलटफेर कर सकता है। स्वाभाविक है बसपा-सपा के 20 और 22 फीसदी वोट मिलकर नई तस्वीर रचने की ताकत रखते हैं। यही वजह है कि मोदी पर सारा चुनावी विमर्श जाति के इर्द-गिर्द खड़ा हुआ है। जातियों का मसला भी काफी संवेदनशील होता है। चुनावों में जातीय संवेदनशीलता नेताओं को बहुत आती है। इसीलिए वे मुद्दों पर चर्चा नहीं करते अपितु जातियों के भीतर की जातियों का उल्लेख करके अपने लिए वोट बैंक तैयार करते हैं। मोदी की सिफत ये है कि उनकी सारी कवायद के मूल में सपना विकास होता है। अपनी इस मुहिम को धार देने के लिए उन्होंने 2014 में कि ये गये भारी-भरकम वादों की तरफ बढऩे की बजाय उन मुद्दों को छूने की कोशिश की जो निचले तबके की एक बड़ी आबादी को प्रभावित करती है।

उज्ज्वला गैस योजना के तहत मुफ्त कनेक्शन, सौभाग्य योजना के तहत बिजली क नेक्शन और बेघरों को प्रधानमंत्री आवास योजना के जरिये सिर पर छत दिलाने का उपक्रम उन्हें ग्रामीण जगत से सीधे जोड़ता है। साथ ही ऐसी सरकार के प्रति भरोसा जगने के साथ ही वोट बैंक भी तैयार होता है। मोदी सरकार ने वही कि या जो मनरेगा के तहत सौ दिन के रोजगार की गारंटी से यूपीए सरकार ने अपने समय में किया था और उसका चुनावों में भरपूर लाभ भी मिला। यही वजह है कि इस बार कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में मनरेगा के तहत 150 दिन के रोजगार का वादा किया है। जहां तक आधारभूत अर्थात संरचनात्मक विकास और सुधार का मामला है तो यह देश के भीतर बदलाव की मजबूत जमीन तैयार करता है लेकिन नेताओं की नजर में इससे एक खास वोट बैंक नहीं होता। इसीलिए जो भी पार्टी सत्ता में आती है तो अपने-अपने हिसाब से एक खास जमात तैयार करती है।

यह आधार सामााजिक -आर्थिक अथवा धार्मिक भी हो सकता है। देश की सियासी बुनावट भी कुछ इसी तरह है। इसीलिए मायावती और अखिलेश यादव हों या फिर नरेन्द्र मोदी, सबको इसी के इर्द-गिर्द सियासत रास आती है। यही वजह है कि खुद ऐशो-आराम की जिंदगी गुजारने वाले नेतागण गरीबी और जाति की बड़ी बात करते हैं। पूरे समाज की बात करने से या समग्रता में ऐसी किसी योजना का जिक्र करने से नेताओं को चुनावी लाभ नहीं मिलता, लेकिन टुकड़े-टुकड़े राजनीति से इन नेताओं का मकसद सिद्ध हो जाता है। बहरहाल नेताओं के इस आचरण के लिए उन्हें दोष देने से पहले बतौर वोटर हमारी क्या भूमिका होती है, इस पर जरूर विचार किया जाना चाहिए। लोक लुभावन योजनाओं की परिपाटी बंद हो सकती है यदि पब्लिक खुद नेताओं से सवाल पूछना शुरू कर दे।

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