चिदंबरम को पांच साल जेटली बचाते रहे

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तब अमित शाह, अब चिदंबरम – दोनों का मतलब भारत संविधान, कानून, प्रक्रिया, सभ्य प्रवृत्तियों से नहीं बल्कि जिसकी लाठी उसकी भैंस में गुंथा हुआ देश है। तब लाठी चिदंबरम के पास थी तो अमित शाह हत्यारे, तड़ीपार आरोपित थे। लाठी की दबिश में पुलिस, एजेंसियों, अदालत, मीडिया ने तब अमित शाह को चैन में जीने नहीं दिया। आज लाठी अमित शाह के पास है और एजेंसियां, अदालत, कानून, मीडिया वैसे ही थिरके हुए हैं, जैसे चिदंबरम-अहमद पटेल की इच्छा में थिरका करते थे। तभी मेरे इस निष्कर्ष को जरूर नोट रखें कि 21वीं सदी के पहले बीस साल में भारत राष्ट्र-राज्य ने जिस शिद्दत से अपने आपको लाठी तंत्र में और ढाला है वह लोकतंत्र के वेस्टमिनिस्टर मॉडल को पाकिस्तानी म़ॉडल की और ले जाना है। इसके आगे दशकों परिणाम भुगतेंगे। निश्चयात्मक तौर पर जानें कि भारत में ब्रिटेन, जर्मनी, जापान या अमेरिका जैसी सभ्य-चेक-बैलेंस की संतुलित इंसानी व्यवस्था बनने की प्रक्रिया अब पूरी तरह स्थगित है। जिसकी लाठी उसकी भैंस में राष्ट्र-राज्य और धर्म, समाज उसी सफर में हैं, जैसे पाकिस्तान बचपन से है।

लक्षण बेचैन बनाते हैं। जान लें मेरा रत्ती भर चिदंबरम से परिचय नहीं है। मेरी चालीस साला पत्रकारिता में वे उन बिरले नेताओं में से एक हैं, जिनसे मैं कभी नहीं मिला। वे बिरले ऐसे मंत्री थे, जिनसे एक वक्त मुझे देवगौड़ा के राज में पायोनियर में छपे गपशप कॉलम पर नोटिस मिला। तब वे वित्त मंत्री हुआ करते थे। जयराम रमेश उनकी चंपूगिरी किया करता था और उसे मैं लुटियन दिल्ली का पात्र मानता था। मुझे तब लगा कि उसी ने कॉलम पढ़वा कर नोटिस भिजवाया। मैंने परवाह नहीं की। मैं हमेशा चिदंबरम को चतुर, अकड़ू चेटियार बनिया मान उनकी राजनीति को अहमद पटेल के जरिए सोनिया गांधी के यहां वैसे ही उछलते देखता रहा जैसे वाजपेयी राज में आडवाणी के जरिए अरूण जेटली अपने को उछालते थे और राम जेठमलानी जैसे तक को धूल चटा दी थी।

और जान लें कि सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की चिदंबरम व अरूण जेटली का दोस्ताना उतना ही गहरा रहा है, जितना चिदंबरम व अहमद पटेल में है। तभी मोदी सरकार के गठन के बाद भी जब राजदीप की किताब विमोचन के बहाने अरूण जेटली और चिदंबरम ने साथ बैठ कर जो दोस्ती दिखाई और राजदीप की जो ब्रांडिंग की तो उसे देख मैं चिदंबरम-जेटली की यारी पर गपशप लिखने से अपने को रोक नहीं पाया। जुमला निकला कि हर सरकार के पतन का चेहरा शपथ के साथ होता है और इस मोदी सरकार में जेटली हैं पतन का चेहरा!

गौर करें कि जब तक अरूण जेटली वित्त मंत्रालय और सरकार में रहे तब तक पी चिदंबरम पर अमित शाह की लाठी पंक्चर रही। जेटली के रहते चिदंबरम् के लिए व्यवस्थाएं थीं। आखिर दस साल मनमोहन सरकार में लगभग नंबर दो वाली हैसियत के चिदंबरम राज में जेटली बतौर राज्यसभा में नेता विपक्ष उनके सखा थे। नितिन गडकरी को भाजपा अध्यक्ष के पद से आउट कराने के लिए चिदंबरम के ही इनकम टैक्स विभाग ने छापे डाले थे और जेटली का सियासी मिशन सधा था। ऐसी साझा दोस्ती के दसियों किस्से अदानी से ले कर अंबानी तक हैं। वे आगे प्रासंगिक नहीं हैं। मोटे तौर पर पिछले बीस सालों का सार यह है कि गोधरा ट्रेन कांड और गुजरात के दंगों से लेकर अब तक के काल में सोनिया गांधी, अहमद पटेल, चिदंबरम, अरूण जेटली और फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के घेरे में जैसी जो राजनीति पकी है वह लाठी तंत्र की, मूर्खताओं की इंतहां की वह दास्तां है, जिसमें भारत व पाकिस्तान की व्यवस्था का भेद खत्म प्राय माना जाए!

मैं लगातार मानता रहा हूं कि मंदिर आंदोलन, गोधरा ट्रेन कांड और फिर गुजरात दंगा इतिहासजन्य धर्म ग्रंथियों का स्वंयस्फूर्त व्यवहार हैं। लेकिन राजनीतिक नेतृत्व ने समझदारी नहीं दिखाई और अपना नुकसान किया तो समुदाय और राष्ट्र-राज्य का भी किया। यों इसे 15 अगस्त 1947 के वक्त से भी लागू कर सकते हैं। मगर इतना पीछे लौटना अभी के प्रसंग में सही नहीं है। मोटे तौर पर गोधरा और गुजरात दंगों ने गुजरात के नरेंद्र मोदी और अहमद पटेल को आमने-सामने ला खड़ा किया। एक तरफ मोदी की राजनीति पकी तो 2004 में सोनिया गांधी की जीत से उनको राजनीतिक सलाह देने वाले अहमद पटेल का व्यवस्थाओं का टेकओवर हुआ। अहमद पटेल का प्राथमिक लक्ष्य था मुस्लिम हित की चिंता। मैं इसमें बुरा नहीं मानता हूं। व्यक्ति हमेशा अपने परिवार, अपने समाज, धर्म में प्राथमिक सुरक्षा पाते हुए उसकी चिंता करता है। लेकिन अहमद पटेल ने यह ध्यान ही नहीं रखा कि कांग्रेस को तुष्टीकरण वाली पार्टी बना कर, विरोध याकि नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कह कर वे जो राजनीति कर रहे हैं उससे अंततः हिंदू राजनीति पकेगी।

वहीं हुआ। सोनिया गांधी सौ टका अहमद पटेल पर निर्भर। और अहमद पटेल के औजार चिदंबरम। मैंने उन दिनों दसियों बार लिखा कि मोदी को मौत का सौदागर बोलना कांग्रेस को ले डूबेगा। तमाम एजेंसियों से नरेंद्र मोदी को जांचों में फंसाना उलटा पड़ेगा। तब क्या-क्या नहीं हुआ इस सबमें! पूरे मीडिया को, लुटियन दिल्ली को नरेंद्र मोदी के खिलाफ प्रोपेगेंडा में वैसे ही झोंका गया जैसे आज चिदंबरम और कांग्रेस के खिलाफ मोदी-शाह ने झोंका हुआ है। मोदी और अमित शाह को फिक्स करने के लिए सीबीआई, ईडी और अदालती प्रक्रिया का वैसे ही इस्तेमाल हुआ जैसे आज मोदी-शाह कर रहे हैं!

मोदी-शाह पर मौत के सौदागर, हत्यारे, फर्जी मुठभेड़ के आरोप लगे थे। इसके लिए अहमद पटेल ने अपने भरोसे के औसत प्रतिभा के गुलाम वाहनवती को भारत सरकार में अटॉर्नी-जनरल बनवाया। खास वीरप्पा मोईली को बतौर कानून मंत्री रखा और मौत के सौदागार के जुमले की समझ देने वाले जावेद अख्तर को राज्यसभा में मनोनीत किया। भारत की आईबी में पहली बार मुस्लिम अधिकारी डायरेक्टर नियुक्त हुआ। मतलब सीबीआई, ईडी, आईबी में वे लोग लगे, जिन पर भरोसा हो कि वे काम जिसकी लाठी उसकी भैंस के अनुसार करेंगे।

2014 से पहले के चार साल में इसी नया इंडिया में छपे कॉलम, लेख, गपशप और उससे पहले पंजाब केसरी, पायोनियर में नियमित छपा मेरा गपशप कालम प्रमाण है, ईटीवी का सेंट्रल हॉल प्रमाण है कि हिंदू आंतकवाद, इशरत जहां केस और आईबी एजेंसी के आला अफसर को अभियुक्त बनाने का जब चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे का नैरेटिव हुआ तब मैंने इसके दुष्परिणाम के बारे में लिखा कि इस सबसे कांग्रेस की कब्र खुद रही है। हिसाब से मनमोहन सरकार के दस साल भ्रष्टाचार से उतने कंलकित नहीं थे, जितने हिंदू को आंतकवादी करार देने, और मोदी-शाह की हिंदू पहचान को अपराधी रंगा-बिल्ला में परिवर्तित करने के लिए लाठियों की साजिशों से थे। सोनिया गांधी, राहुल गांधी और खुद अहमद पटेल व चिदंबरम नहीं समझ पाए कि वे जो कर रहे हैं वह अपने हाथों अपनी कब्र खोदना है।

वहीं हुआ। हिंदुओं ने बिलबिलाते हुए, प्रतिशोध में भारत का लाठी तंत्र मोदी-शाह को सुपुर्द किया। वे लाठी के मालिक। लाठी है तो अदालत का तब उपयोग था तो अब भी है। एजेंसियों का तब उपयोग था तो अब भी है। मीडिया का तब उपयोग था तो अब भी है। तभी समझने वाली बात है कि लाठी का तंत्र स्थायी है। संविधान, व्यवस्था, कानून, प्रक्रिया सब लाठी से संचालित है। तभी अपने संविधान का मजा है जो एक दिन नेहरू ने चाहा तो अनुच्छेद 35ए बिना संविधान सभा, बहस के बन गया। फिर एक दिन ऐसा आया कि अमित शाह ने चाहा तो पांच मिनट में अनुच्छेद 370 और 35ए खत्म। और जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश! कानून और उसकी क्या प्रक्रिया जो कभी सुप्रीम कोर्ट आधी रात मे सुनवाई करे और जब भारत का पूर्व वित्त मंत्री-गृह मंत्री और स्वंय सुप्रीम कोर्ट का वरिष्ठ वकील अपनी जमानत याचिका लगाए तो जज सुनवाई टालें।

1950 से 2000 के पचास सालों में नेहरू-वाजपेयी का वक्त यह मनोकामना लिए हुए था कि राजे-रजवाड़ों से चला आ रहा लाठी तंत्र धीरे-धीरे संस्थाओं-व्यवस्थाओं के निर्माण और उनकी स्वायत्तता के सच्चे ब्रितानी वेस्टमिनिस्टर लोकतंत्र से रिप्लेस हो। हमें ब्रिटेन, फ्रांस बनना है न कि पाकिस्तान। पाकिस्तान का ध्येय धर्म, सामंतशाही की लाठी का था। तभी वहां संस्थाओं, उनकी आजादी नहीं, बल्कि तानाशाही, मनमानी बनी। लाठीतंत्र का वह एक्स्ट्रीम भी कि फौजी हुकूमत जरूरी है। भुट्टो को लाठी मिली तो विरोधियों को मरवाया। भुट्टो से लाठी हटी तो अगले राष्ट्रपति ने भुट्टो को फांसी पर लटका दिया। पाकिस्तान का इतिहास ऐसी ही बातों से भरा हुआ है कि अदालतों का वहां कैसे इस्तेमाल होता है। कैसे किसी को रातोंरात हत्यारा करार दे कर फांसी पर लटका दिया जाता है या भ्रष्टाचारी करार दे जेल में डाल देते हैं। देश निकाला दे देते हैं या मंत्रियों, नेताओं, जनता में भी लोगों को कभी ईश निंदा तो कभी गद्दारी के हल्ले में, फतवे में नोच-नोच कर निपटा देते हैं।

बहरहाल रात को जब चिदंबरम के घर सीबीआई के लोगों को दिवाल फांद कर कूदते देखा तो मैंने सोचा कि डायरेक्टर ऋषि कुमार शुक्ला की तो यह शिक्षा-दीक्षा-संस्कार नहीं हो सकते जो एजेंसी का उचक्के वाला इस्तेमाल कराएं। पर फिर सोचा कि जब लाठी तंत्र ही व्यवस्था का नाम है तो कोई ऋषि भी क्या कर सकता है! गनीमत जो दक्षिण अमेरिकी देशों की तरह विरोधी से बदला लेने के लिए एजेंसियों से सीधे गोलीबारी करवा कर भ्रष्टाचारियों को मारा नहीं जा रहा है। यदि ऐसा भी हो तो आज भारत वह हो गया है जिसमें असंख्य लोग ताली बजाने वाले मिलेंगे। वह वक्त भी आएगा। और हां, जान ले दुनिया के कई कथित लोकतंत्रों में लाठीतंत्र का ऐसा स्वरूप है।

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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