चार तालिबानी नेताओं के हाथ में कमान

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दुनिया की आशंका सच साबित हुई। तालिबान अफगानिस्तान की राजधानी काबुल तक पहुंच गया। अब साा हथियाने के लिए वो अफगान सरकार से मोलभाव कर रहा है। तालिबान 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान की साा पर काबिज रह चुका है। तब उनके नेता मीडिया के सामने नहीं आते थे। अगर आते भी थे तो चेहरा ढंका होता था। 20 साल बाद हालात बदले हैं। तालिबान के कुछ नेताओं के असली नाम भी सामने आ रहे हैं और वो प्रवक्ताओं के जरिए अपने पैगाम या कहें फतवे भी देश और दुनिया तक पहुंचा रहे हैं। माना जा रहा है कि फिलहाल तालिबान की कमान चार नेताओं के हाथ में है। इनमें से दो के चेहरे अकसर दुनिया के सामने आते रहते हैं, लेकिन बाकी दो नेताओं की झलक अब तक सामने नहीं आई। बहरहाल, इन चार नेताओं के बारे में कुछ जानकारियां इस तरह हैं…

हेबतुल्लाह अखुंदजादा (सुप्रीम लीडर): बात 2016 की है। अमेरिका ने जलालाबाद एयरबेस से तालिबान के एक ठिकाने पर ड्रोन के जरिए मिसाइल हमला किया। इस हमले में मुल्ला मंसूर अख्तर मारा गया। इसके कई दिनों बाद खबर आई कि हेबतुल्लाह अखुंदजादा को तालिबान को सर्वोच्च नेता बना दिया गया है। मुल्ला मंसूर के रहते हुए हेबतुल्लाह लो-प्रोफाइल ही रहता था। तालिबान में रहते हुए उसकी भूमिका मजहबी मामलों तक ही सीमित थी। दूसरे नेताओं की तरह उसे जंग की रणनीति बनाने या इन मामलों का माहिर नहीं माना जाता था। हेबतुल्लाह कंधार का रहने वाला है। तालिबान में मजहबी फैसले वही लेता है। हत्यारों और अवैध संबंध रखने वालों की हत्या का आदेश हितुल्लाह ने ही दिया था। अखुंदजादा अल-कायदा के चीफ अयमान अल जवाहिरी का करीबी समझा जाता है। कहा तो ये भी जाता है कि जवाहिरी ने उसे ‘अमीर’ का ओहदा सौंपा था। यह पदवी भी धार्मिक मामलों में फैसला करने वाले सर्वोच्च नेता की थी। हेबतुल्लाह ने जब तालिबान के सुप्रीम लीडर की जिम्मेदारी संभाली, उस वक्त यह अलग-अलग गुटों में बंटने लगा था। देश पर कब्जे के लिए एकता जरूरी थी, और यह काम उसने बखूबी किया। सालाना इस्लामी त्योहारों पर वह पैगाम भी जारी करता है।

मुल्ला बरादर (संस्थापक): मुल्ला बरादर का पूरा नाम मुल्ला अदुल गनी बरादर है। कंधार में उसकी परवरिश हुई। कंधार यानी वह जगह जहां तालिबान जैसे लड़ाका संगठन की नींव पड़ी। 1970 के दशक में जब सोवियत सेना ने मुल्क पर कब्जा किया तब से ही वो किसी न किसी रूप में सक्रिय है। कहा जाता है कि बरादर तालिबान के पूर्व शीर्ष कमांडर मुल्ला उमर का दाहिना हाथ रह चुका है और एक आंख वाले उमर के साथ कई बड़ी वारदातों में शामिल रहा है। 2001 में जब तालिबान की हुकूमत चली गई तब उसने हामिद करजई (तब के अफगान राष्ट्रपति) से भी संपर्क किया था। 2010 में उसे पाकिस्तान में गिरफ्तार भी किया गया था। अमेरिकी दबाव के बाद 2018 में उसे रिहा कर दिया गया। इसके बाद से वो कतर में रह रहा है। बरादर तालिबान के पॉलिटिकल और डिप्लोमैटिक मामले देखता है। अमेरिकी फौज की अफगानिस्तान से वापसी के समझौते पर उसने ही दस्तखत किए थे।

सिराजुद्दीन हकानी (हकानी नेटवर्क): 1970-80 के दशक में सोवियत सेनाओं के खिलाफ गोरिल्ला हमले करने वाले जलालुद्दीन हक्कानी का बेटा है सिराजुद्दीन हक्कानी। तालिबान में इसकी हैसियत नंबर दो मानी जाती है। अमेरिका जिस हक्कानी नेटवर्क को नेस्तनाबूद करना चाहता है, उसका लीडर सिराजुद्दीन हक्कानी ही है। खास बात यह है कि हक्कानी नेटवर्क और तालिबान नेटवर्क अलग-अलग संगठन हैं, लेकिन दोनों का मकसद एक है। हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान की बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई का सबसे करीबी माना जाता है। हक्कानी नेटवर्क के दहशतगर्द फिदायीन हमले ज्यादा करते हैं। माना जाता है कि अफगानिस्तान में हुए ज्यादातर सुसाइड अटैक्स में इसी संगठन का हाथ है। उगाही के लिए ये अफगानिस्तान में तैनात विदेशी नागरिकों या उनके परिवारों को भी अगवा करता रहा है। पूर्वी अफगानिस्तान के पहाड़ी इलाकों में इसका दबदबा है।

मुल्ला याकूब: बेहद खूंखार है मुल्ला याकूब। तालिबान के फाउंडर मेंबर मुल्ला उमर का बेटा है। इसके भी पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी से करीबी रिश्ते हैं। तालिबान की जंगजू यूनिट यानी लड़ाकों की कमान इसके ही हाथ में है। संगठन के तमाम फील्ड कमांडर्स इसके ही आदेशों का पालन करते हैं। जंग और हमलों की रणनीति भी यही तय करता है। हालांकि, कुछ जानकार ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि याकूब का रोल संगठन में उतना ताकतवर नहीं है, जितना बताया जाता है।

पूनम कौशल
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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